बाईस परिषहों में एक परिषह है- सत्कार पुरस्कार! परन्तु हम लोग तो सत्कार पुरस्कार को अच्छा मानते हैं फिर यह परिषह की श्रेणी में क्यों आया?
मान-सम्मान मिलना कोई छोटी मोटी चीज नहीं है। मान सम्मान मिलने पर मन का फूल उठना, यह अज्ञान है। उसका अभिमान नहीं होना। मान सम्मान न मिलने पर दीनता न आना, यह सत्कार पुरुस्कार का परिषह है। अभिमान और दहन- यह दोनों हमारे चित्त की दुर्बलता है। अगर तुम्हारा खूब मान सम्मान हो रहा है और मन में अभिमान आ रहा है कि मेरे से बड़ा कोई नहीं, अच्छे-अच्छे मेरे आगे-पीछे घूमते रहते हैं– गये काम से। किंचित प्रसन्नता होना अलग है और इसका अभिमान कर अन्यों को अपने से तुलना करके, सामने वाले को तुच्छ समझना यह अलग है। यद्यपि वीतरागी योगी को इसमें प्रसन्न्ता भी नहीं होती पर प्रमाद की भूमिका तक प्रशंसा से प्रसन्नता की अनुभूति कुछ पल के लिए होती है, पर मान नहीं होना चाहिए।
इसी प्रकार सत्कार पुरस्कार न हो तो हीनता की अनुभूति नहीं होनी चाहिए। दोनों खतरनाक हैं। मैंने कई बार देखा है जिनको होता है उनको मान भले न हो, मगर जिनको नहीं होता उनको दीनता की अनुभूति जरूर होती है। यह दोनों खतरनाक हैं इनसे बचना चाहिए।
ऐसे समय में क्या सोचना चाहिए?
ये सब संयोग है पुण्य पाप का, चल रहा है, इससे मेरी आत्मा के वैभव में कोई वृद्धि नही।
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