महिलाएँ मन्दिर में धर्म का, पूजा पाठ का, विधान आदि का तो बहुत काम करती है, किन्तु दान देने में इतनी पीछे हैं कि वे पूजन सामग्री भी मन्दिरों से लेंगी, किन्तु कोई दान, कोई चीज में दान नहीं देंगी। साड़ियाँ खरीदेंगी, ज्वेलरी खरीदेंगी, लेकिन धर्म के नाम पर दान में इतनी ज़्यादा पीछे हैं। ऐसा कौन से पाप कर्म के उदय से है?
आप मन्दिर में जब भी पूजा आदि करें, जितनी द्रव्य -सामग्री लगे वह तो अपनी लगाओ। आप पूजा करते हैं, कवि से पूजा की पंक्तियाँ उधार ले लेते हो, मन्दिर की बिजली, मन्दिर के पंखे, मन्दिर की जमीन, मन्दिर के आसन का उपयोग भी कर लेते हो, तो वह आपका नहीं, पूजा की द्रव्य-सामग्री भी आपकी नहीं, वह भी मन्दिर की, तो पुण्य किसका होगा? ये प्रमाद है, इस प्रमाद से बचना चाहिए। सब में यह प्रयास होना चाहिए कि अपनी द्रव्य सामग्री ही आप मन्दिर में चढ़ाएँ। कदाचित मन्दिर की व्यवस्था के तहत यदि आप वहाँ से सामग्री लेते हो, तो जितनी की सामग्री लेते हो उससे अधिक द्रव्य मन्दिर को समर्पित करें। आप लेते ज़्यादा हैं, देते कम हैं तो आएगा भी कम! इसलिए शक्ति के अनुरूप कार्य करना चाहिए। बहुत महत्त्वपूर्ण मुद्दा आपने उठाया है यह महिलाओं में शायद ज़्यादा बीमारी होगी, मुझे तो मालूम नहीं, लोगों का अनुभव होगा। किन्तु जो भी है, ये ठीक नहीं है, इससे बचना चाहिए।
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