पुराने रीति-रिवाजों और मूढ़ताओं को मानें या नहीं?

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शंका

जो पुराने रीति रिवाज़ और मूढ़ताएँ चली आ रही हैं, क्या उनको मानना ज़रूरी है, और उनका उपाय क्या है?

समाधान

रीतियाँ और मूढ़ताएँ अलग अलग होती हैं। रीतियाँ कुछ अच्छी भी होती हैं और कुछ कुरीतियाँ भी होती हैं। पर मूढ़ता सदैव मूढ़ता ही होती है। मूढ़ता का तात्पर्य है धार्मिक अंध विश्वास, धर्म बुद्धि से किसी कार्य को करना यह मूढ़ता है। ऐसी क्रिया जिसमें आत्मा के हित का कोई सम्बन्ध ना हो, हमें धर्म बुद्धि से उसे कभी नहीं करना चाहिए। 

हमारे यहाँ तीन प्रकार की मूढ़ताएँ बताई गई; लोक मूढ़ता, गुरु मूढ़ता और देव मूढ़ता! इन तीनों मूढ़ताओं से अपने आप को बचाना चाहिए। जहाँ तक सवाल है समाज के रीति-रिवाजों का, सब रीतियाँ सब रिवाज़ व्यर्थ नहीं होते, बहुत से अच्छे भी होते हैं। जैसे कि सिर मुंडवाना समाज की रीति है; किसी के परिवार में शोक हुआ तो अपने शोक-सन्तप्तता की अभिव्यक्ति के लिए लोग सिर मुंडवाते हैं। सिर मुंडवाने के पीछे परम्परा थी कि किसी व्यक्ति के चले जाने के बाद मन को तकलीफ़ हो तो उसके लिए अपना जो सबसे प्रिय है, उसे छोड़ो। हर मनुष्य के लिए उसका केश सबसे ज्यादा प्रिय होता है, शायद इसलिए लोग केश कटवाते हों पर यह ज़रूरी नहीं है। केश कटवाना धर्म नहीं है, यह लोक की रीति है, पर इसे कुरीति की संज्ञा नहीं दे सकते। 

कुरीति क्या है? मृत्यु भोज! यह एक कुरीति है! जिस रीति से समाज पर अनावश्यक बोझ बढ़ता हो, समाज का नुकसान होता हो, जो रीतियाँ मनुष्य के उत्थान में बाधक होती हों, जो रीतियाँ मनुष्य के चरित्र को विकृत करती हों और जो रीतियाँ मनुष्य के मान को सम्पुष्ट करती हों, वे सब कुरीतियाँ कहलाती हैं। इनसे बचना चाहिए! पर जिन रीतियों से सामाजिक समरसता बढ़ती है, जिन रीतियों से पारस्परिक प्रेम बढ़ता है, जिन रीतियों से परस्परता के मूल्यों को पुष्टि मिलती है, जिन रीतियों से सद्भाव बढ़ता है, वात्सल्य बढ़ता है, वे रीतियाँ सदैव पुष्ट होती रहनी चाहिए। दोनों प्रकार की स्थितियाँ है; कुरीतियों को खत्म करो और रीतियों का सम्मान करो।

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