हम लोग अभिषेक करने के लिए एक मूर्ति उठाकर उसे पीठ पर विराजमान कर उसका अभिषेक करते हैं, और उस मूर्ति को फिर से विराजमान कराते हैं। क्या ऐसा हर मूर्ति के साथ होना चाहिए, चाहे वह पाषाण की हो या धातु की, क्या सबका अभिषेक होना चाहिए?
अभिषेक पाठ में हम अभिषेक की प्रतिज्ञा करते हैं, फिर श्रीकार लिखते हैं, फिर भद्र पीठ की स्थापना करते हैं, भगवान को उस भद्र पीठ में विराजमान करते हैं- यह सारी क्रिया चल प्रतिमा में ही सम्भव होती है, अचल बिंब में तो ये होती ही नहीं है। यथार्थ में देखा जाए तो चल बिंबों की ही अभिषेक की व्यवस्था अभिषेक पाठों में मिलती है। अचल बिंबों में यह लोग भावनावश करते हैं। पर मुझे यह बहुत ज़्यादा प्रशंसनीय नहीं लगता। अचल बिंबों का प्रक्षाल होना चाहिए निमित्त विशेष पर, प्रसंग विशेष पर आप अभिषेक करें। नहीं तो हमने कई जगह देखा है कि अभिषेक करते-करते भगवान की भौहें घिस गई हैं, रंग भी विवर्ण हो जाता है। यह सब चीजें बहुत विचार और विवेक के साथ करनी चाहिए। क्रियाओं में रूढ़ बनना अच्छी बात नहीं है।
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