सेवा भाव से होती है या क्रिया से?

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शंका

धर्म तो हम भावों से कर सकते हैं, लेकिन सेवा हम किस प्रकार कर सकते हैं? जबकि धर्म और सेवा तो एक ही समान होते हैं।

समाधान

बहुत सुन्दर पूछा है, धर्म हम भावों से भी कर सकते हैं, सेवा कैसे करें, धर्म और सेवा दोनों एक समान है? धर्म और सेवा, पहले इन दोनों चीजों को समझो। 

धर्म हमारी एक उपासना की क्रिया है जो हम बाहर करते हैं, सेवा भी एक उपासना है। धर्म में हम भगवान की आराधना करते समय स्वयं को क्रियात्मक रूप से शामिल न भी करें तो हमारे भावों की पुष्टि हो सकती है। लेकिन सेवा में एक सजीव सेव्य है जिसकी हमें साक्षात उपस्थिति की आवश्यकता होती है। आप सेवा की केवल भावना करें तो सेवा नहीं है। ‘किसी भूखे के लिए भोजन मिल जाए’- ऐसी भावना भाते रहो और भूखा बगल में बैठा रहे तो मज़ा नहीं आएगा। आपके पास भोजन है, तो आप पूरा नहीं दे सकते तो अपना आधा तो उसको जरूर देने की कोशिश करें, आधा नहीं तो उसका एक अंश तो देना शुरु जरूर करें क्योंकि वो भूखा है। 

सेवा सदैव क्रियात्मक होती है। हाँ, जब क्रियात्मक कर पाने की स्थिति नहीं है, तो भावात्मक रूप से आप सेवा की भावना भा सकते हैं। लेकिन सेवा की संपूर्णता जब तक आप अपने आपको क्रिया से न जोड़ें, तब तक नहीं होती। पूजा तो पशु-पक्षी भी कर लेते हैं, भावात्मक रूप से। इसलिए दोनों चीजें अलग-अलग हैं। 

और एक बात, भगवान की सेवा पूजा है, पूजा को भी सेवा कहा गया है। तो भगवान की सेवा में भगवान केवल भाव चाहते हैं, भगवान के लिए क्योंकि वो प्रणातीत हैं। उन्हें और किसी चीजों की आवश्यकता नहीं है। वो कृत-कृत हैं। उन्हें हमारे किसी द्रव्य की आवश्यकता नहीं लेकिन जो सेवा के पात्र हैं उन्हें आपके द्रव्य की आवश्यकता है, जो केवल क्रियात्मक रूप से शलिन होने पर ही सम्भव है।

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