धर्म संकट को टालता नहीं, संकट में संभालता है!

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शंका

जिस प्रकार पाप पुण्य के उदय में आ जाते हैं, सब कुछ अच्छा चल रहा होता है और बुरा होने लगता है, तो कहा जाता है कि ‘हम पहले का किया अब भोग रहे हैं’क्या ऐसा होता है? जो पहले किया है वो अभी चल रहा है जो अभी किया है वो आगे चलता रहेगा?

समाधान

यह आगे का पीछे और पीछे का आगे होता रहता है। जो हम भोग रहे हैं अतीत का भी भोग रहे हैं, वर्तमान का भी भोग रहे हैं और अभी जो हम कर रहे हैं उसको कुछ अभी भी भोग सकते हैं और कुछ आगे भी भोग सकते हैं, ये कर्म सिद्धान्त की एक प्रक्रिया है। 

अब हमारे हाथ में है क्या? संचित कर्म जो हम लेकर के आए हैं उस कर्म में हम बहुत कुछ परिवर्तन कर सकते हैं। जैसा मैंने पहले भी कहा था कि हमारे हाथ में हमारा पुरुषार्थ है जो पुण्य की backing (समर्थन) से फलता है, लेकिन यदि हम सत्पुरुषार्थ करते हैं तो अपने अशुभ को शुभ में परिवर्तित कर सकते हैं, यह बहुत बड़ी ताकत है, इसको संक्रमण कहते हैं और अपनी विशुद्धि के बल पर नया पुण्य को भी उपार्जित कर सकते हैं। 

अब रहा सवाल कि अच्छा करने के बाद भी विपत्तियाँ जीवन में आती है, तो फिर मन से श्रद्धा डगमगाने लगती है कि धर्म करने के बाद भी हमको परिणाम नहीं मिला तो हम धर्म क्यों करें? यह प्रश्न आता है; मैं आप से कहता हूँ पहले अपना concept (अवधारणा) बदलिए, यह धारणा गलत है कि धर्म करने से मेरी विपत्तियाँ टलती हैं। विपत्तियों को टालने में धर्म भी समर्थ नहीं है। कर्म का जो प्रहार है वह तो तीर्थंकरों को भी झेलना पड़ा। पारसनाथ भगवान पर जितनी विपत्ति आई उतनी विपत्ति किसी सामान्य प्राणी पर नहीं आई, तो दुख, संकट, सन्ताप धर्मात्मा के ऊपर ज़्यादा आते हैं अधर्मियों पर कम। मै तो हमेशा कहता हूँ कि परीक्षा सतियों की होती है, वेश्याओं की नहीं, उपसर्ग साधुओं पर आते हैं, डाकुओं पर नहीं। कसौटी पर सोने को कसा जाता है लोहे को नहीं, संकट धर्मी पर आते हैं अधर्मी पर नहीं। पहचानो, ये मेरा धर्म क्या कर रहा है? अगर आपने सच्चे मन से धर्म किया और पाप के उदय में भी आपने धर्म किया है, तो आपको कुछ मिले या न मिले, आप के संकट टलें या न टलें, आपका मन स्थिर रहेगा। धर्म हमारे संकटों को टालता नहीं, संकटों में संभालता है और यह संभालने वाली ताकत केवल धर्म के पास है इसलिए इस स्थिति में भी हम धर्म का पुरुषार्थ गौण न करें।

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