पूजा निराकुलता से करें, शोर के साथ नहीं!

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शंका

हम लोग जब कोई धार्मिक कार्य करते हैं तो उसमें बहुत आकुलता हो जाती है। आकुलता के साथ में जो पूजा-पाठ करते हैं, वो इतनी आवाज़ के साथ करते हैं कि आस-पास के अन्य लोगों के लिए भी disturbance (विघ्न) होता है। इसके लिए क्या किया जाए?

समाधान

ऐसी समस्याएँ तभी आती हैं जब व्यक्ति क्रिया को ही धर्म मानता है और क्रियारुढ़ हो जाता है। हमें इस बात को सदैव ध्यान में रखना चाहिए कि ‘यस्मात् क्रिया न प्रतिफलन्ति न भाव शून्यम्’– भाव से शून्य क्रिया कभी भी फलवान नहीं बनती। इसलिए जो भी क्रिया करें, भाव पूर्वक करें। हम कोई भी क्रिया कर रहे हैं तो उसके प्रयोजन को सामने रख कर के चलें, तभी उस क्रिया में शुद्धि रख सकते हैं, तभी उस क्रिया का सही लाभ ले सकते हैं। प्रयोजन को ध्यान में रखने वाले लोग ऐसा नहीं करते हैं। 

मन्दिर में आप कोई भी धार्मिक क्रिया निराकुलता से करें; आप आकुलता को शान्त करने के लिए तो मन्दिर आये और यहाँ आकुलता करोगे तो क्या होगा? आकुलता पूर्वक ना करें, निराकुलता से करें। यदि आपके पास समय कम है, तो एक पूजा भी कर लें तो कोई दिक्कत नहीं। पुस्तक के पन्ने पलटना और पुँज को एक थाली से दूसरी थाली में चढ़ाने का नाम पूजा नहीं है; इत्मीनान से पूजा करें। 

पूजा का मतलब क्या है?-भगवान के साथ अपना संवाद स्थापित करना! भगवान के पास जाकर के संवाद करो, हड़बड़ा करके बोलना शुरू करोगे, आधा खाओगे आधा बोलोगे, तो भगवान क्या सुनेंगे? उनसे संवाद नहीं जुड़ सकेगा। हम भगवान को कुछ सुनाने नहीं आए हैं, भगवान के साथ एक संवाद स्थापित करने के लिए आए हैं। यदि ऐसी भावना आपके हृदय में बैठेगी तो आपका मन निश्चित तौर पर स्थिर बना रहेगा। 

दूसरी बात, आप पूजा आदि करें भी तो इस तरीके से करें कि पूजा से किसी दूसरे को व्यवधान ना हो। यदि ऊँचे स्वर में पढ़ने में ही आपका मन लगता है, तो आप ऐसे समय में मन्दिर जाएँ जिस समय मन्दिर खाली होता हो, जोर-जोर से भगवान को सुनाएँ, अपनी बात करें आपको कोई तकलीफ़ नहीं। लेकिन यदि आपकी पूजा-अर्चना से किसी दूसरे व्यक्ति का ध्यान भग्न होता है और उसकी पूजा में बाधा आती है, तो जिन शास्त्रों में ऐसा लिखा है कि-‘जिन पूजा में विघ्न डालने से तीव्र अन्तराय कर्म का बन्ध होता है।’ अनजाने में अन्तराय कर्म के भागी मत बनो। अपने समय को आगे-पीछे करके adjust (समायोजित) करें तो आनन्द आएगा। 

मैं गोटेगाँव में था, वहाँ एक बमोरीया जी थे। वे प्रायः १०-१०:३० बजे मन्दिर आते, पूजा करते। वह अपनी पूजा बनाकर के बहुत मधुर लय में पूजा करते। इतनी मधुरता के साथ गाते कि कभी-कभी आहार चर्या के बाद में लोगों को बोलता कि ‘बैठो शान्ति से इनकी पूजा सुनने दो।’ पर १०:३० के पहले उनको मन्दिर कभी नहीं आना होता। मैंने एक दिन पूछा ‘क्या बात है, आप इतने विलम्ब से क्यों आते हो?’ वह बोले,-‘महाराज मेरा रटी-रटाई पूजाओं में मन लगता नहीं। मैं अपनी पूजा ही भगवान के साथ करता हूँ, मैं पूजा नहीं करता; भगवान से बात करता हूँ। जब तक गा करके पूजा नहीं बोलता हूँ तो अच्छा नहीं लगता। इसीलिए मैंने ऐसा क्रम बना लिया, सुबह आऊँ तो सबको डिस्टर्ब हो, तो १०:०० बजे के बाद मन्दिर आता हूँ तो भगवान अकेले मिलते हैं। मैं अपने और भगवान के बीच व्यवधान पसन्द नहीं करता।’ वह पूजा करने के बाद ही मुँह में पानी लेते थे। यह भी एक तरीका है।

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