भगवान के दर्शन से निधत्ति और निकाचित कर्मों का भी क्षय हो जाता है!

150 150 admin
शंका

निधत्ति और निकाचित कर्म भगवान के दर्शन करने से भी नष्ट हो जाते हैं, तो प्रश्न आता है कि वह ऐसी कैसी आस्था होती होगी और ऐसा कैसा दर्शन होता होगा कि जिसमें इतने कठोर कर्मों को भी नष्ट किया जा सकता है?

समाधान

पहले तो मैं एक बात कहना चाहूँगा कि हमें अपनी धारणा में थोड़ा बदलाव लाना चाहिए। हम लोगों की एक धारणा है कि निधत्ति और निकाचित रूप में कोई कर्म विशेष हैं, ऐसा नहीं है। आठ कर्मों में कोई कर्म ऐसा नहीं है, जिसे हम निधत्ति और निकाचित रूप कर्म के रूप में गिन सकें। तो फिर यह निधत्ति और निकाचित कर्म की चर्चा क्यों आती है? तो कहते है- यह निधत्ति और निकाचित एक करण है जो आठो कर्मों में पाया जाता है। और एक और रहस्य की बात- यह पुण्य में भी होता है और पाप में भी होता है। दस करण में एक करण है –निधत्ति और एक करण है- निकाचित। यह आठों कर्मों का है। जैसे बन्ध आठो कर्मों का, उदय आठों कर्मों का, सत्व आठों कर्मों का, उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण, उदीरणा आठों कर्मों की, तो निधत्ति और निकाचित भी आठों कर्मों में होता है। तो यह कर्म नहीं कर्मांश है। हमारी चेतना में कुछ कर्मांश ऐसे हैं, जो निधत्ति स्वरूप होते हैं। निधत्ति स्वरूप में रहने वाले कर्मांशो में हम उनका उत्कर्षण, अपकर्षण तो कर सकते हैं यानी उनकी फलदान की शक्ति को घटा बढ़ा तो सकते हैं, बदल नहीं सकते और असमय में भोग नहीं सकते। 

कुछ कर्मांश ऐसे होते हैं, जिनको न हटाया जा सके, न बढ़ाया जा सके, न बदला जा सके और न ही असमय में भोगा जा सके, उसको बोलते है निकाचित। अब यह कर्म हमारी चेतना में पड़े हैं। जब तक ऐसे कर्मांश हमारी चेतना में पड़े रहेंगे, तब तक हम उनको हिला नहीं पाएँगे और हिला नहीं पाएँगे तो आगे कैसे बढ़ेंगे। तो सामान्यतः यह निधत्ति और निकाचित स्वरूप कर्म शुक्ल ध्यान की विशुद्धि से नष्ट होते हैं। जब कोई साधक शुक्ल ध्यान में डूबकर नौवे गुणस्थान में पहुंचते हैं, तब वहाँ निधत्ति और निकाचित कर्म नष्ट होता है। यानि आत्मा की एक ऐसी भूमिका आती है कि वह सब कर्मों में बड़ा परिवर्तन करने में समर्थ हो सकती है। और तभी कर्मों का क्षय या उपशम की योग्यता आत्मा में विकसित होती हैं। यह सामान नियम है, लेकिन जिनेन्द्र भगवान की भक्ति के परिणाम स्वरूप उस निधत्ति और निकाचित कर्मांशो में से कुछ अंश नष्ट हो जाते हैं। इसलिए आचार्य वीरसेन महाराज ने लिखा है –

जिनबिम्बदंसणेण णिधत्तणिकाचिदस्स वि मिच्छत्तादिकम्मकलावस्स खय दंसणादो 

जिनबिंब के दर्शन से निधत्ति और निकाचित कर्मांश स्वरूप मिथ्यात्वादि कर्म कलाप का क्षय देखा जाता हैं। कुछ का। यह विशुद्धि का प्रतिफलन है। अर्थात जब ह्रदय में भगवान की सच्ची भक्ति प्रकट होती है, तो हमारे चेतना में जमे हुए कर्मों में हलचल मच जाती है। और उस हलचल के परिणाम स्वरूप झड़ने को बाध्य होते हैं और उनमें वह भी लपेटे में आ जाते हैं जिन्हें हिलाना सहज रूप से सम्भव नहीं होता, ऐसा समझना चाहिए।

Share

Leave a Reply