कोरोना महामारी के समय में राष्ट्रधर्म सर्वोपरि है!

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शंका

हमने जीवन भर ये पढ़ा कि चार की शरण होती है- अरिहंत जी, सिद्ध जी, साधु परमेष्ठी और केवली मतलब धर्म की। हमने यह भी पढ़ा है कि जो सम्यक् दृष्टि होता है वह निर्भय होता है, निर्भीक होता है, उसे कोई भय नहीं होता है। हमें ये भी पढ़ाया गया है कि सम्यक् दृष्टि का अकाल मरण नहीं होता। हमें ये भी पढ़ाया गया है कि देव-शास्त्र-गुरु पर ही श्रद्धान करके चलना है। हमें आप जैसे गुरुओं ने ही सिखाया है कि मन्दिर जाना चाहिए, पूजन करना चाहिए, भेद विज्ञान की बात कही है। प्राइमरी स्टेज पर हम लोग सब यही जानते हैं कि यही धार्मिक क्रियाएँ हैं। आज जब ये कोरोना वायरस आया तो जब ये बातें आपके, आचार्य श्री के मुखारविंद से सुनने मिलती हैं – अभी इस राष्ट्रीय और वैश्विक आपदा में हमें राष्ट्र प्रेम को पहले रखना है और धर्म को बाद में रखना है- तो रोना आता है। ऐसा लगता है कि हमारी वो शिक्षा, हमारा वो अभ्यास हमें इतना कमजोर बना रहा है। हमें ये भी बताया गया है कि ‘जब तक हमारा समय नहीं आएगा, जब तक हमारी आयु पूर्ण नहीं होगी हमें नहीं कोई मार सकता है।’ ऐसे क्षण में हम चाहते हैं कि आपका वो सम्बोधन भी मिले।

समाधान

आपने बहुत अच्छी बात कही। न तो किसी के धर्म को छुड़ाने की बात की जा रही है, न मन्दिर छुड़ाने की बात की जा रही है, न किसी प्रकार से डरने की बात की जा रही है। डरने की तो बात कभी है ही नहीं। और आज भी धर्म हमें पहला पाठ यही पढ़ाता है कि ‘अभय रहो! तुम्हारी जब तक आयु है तुमको कोई हिला नहीं सकता और यदि प्राणांत हो भी जाए तो घबराओ नहीं। प्राणांत होगा तो तन का होगा, मरेगा तो तन मरेगा। तुम्हारा तो न जन्म हुआ है न मरण। तुम अजन्मे हो, अमर हो, अजर, अमर, अविनाशी हो।’ इस श्रद्धान को अपने अन्तरंग में स्थाई रूप से अंकित रखो। 

जहाँ तक सवाल है, मन्दिरों से दूर होने का- दो तरह का संकट होता है। एक व्यक्तिगत संकट और एक सामूहिक संकट। धर्म का पाठ हमें ये पढ़ाता है, ये सीख देता है कि ‘तुम पर व्यक्तिगत रूप से कितना भी बड़ा संकट हो, विचलित मत होना। अन्तिम श्वाँस तक अपना धर्म निभाना और धर्म के लिए अपना शरीर भी छोड़ना पड़े तो चिन्ता मत करना क्योंकि वही तुम्हारा धर्म है। इस विश्वास से जीना कि तन तो विनाशी है, आत्मा अविनाशी है।’ अभी बहुत सारे लोगों को तकलीफ हो रही है। हम लोगों ने भी बोला है कि अभी आप मन्दिर आदि से अपने आप को दूर कर लो। निश्चित ही वेदना तो हम लोगों को भी होती है। लेकिन अभी भावना में बहने का समय नहीं है। अभी समझदारी का समय है। यहाँ आपका धर्म नहीं छुड़ाया जा रहा है, न ही धर्म की क्रिया बंद की जा रही है, तरीका बदला जा रहा है। आपसे कहा जा रहा है-‘मन्दिर नहीं जाओ’; ये थोड़ी कहा जा रहा है-‘धर्म मत करो।’ आपसे ये कहा जा रहा है कि ‘घर पर धर्म कर लो।’ 

हमेशा आप सबसे मैं कहता हूँ धर्म क्रिया का नाम नहीं विचार और भावों का नाम है। आप मन्दिर में बैठ करके पूजा करेंगे तभी आपकी पूजा होगी, ये भ्रम है। आपके हृदय में जहाँ पूजा के भाव होंगे, उद्गार निकलेंगे वहाँ पूजा हो जाएगी, यथार्थ है। तो कहीं पर भी बैठ करके पूजा करो, पाठ करो। आपको अभी तो और भी अच्छा मौका है, दुकान नहीं, धंधा नहीं, व्यापार नहीं, कुछ काम नहीं तो और विशुद्ध भाव से धर्म ध्यान करो, मंगल कामना करो, शांति मन्त्र की जाप करो, पाठ करो, भक्तामर का पाठ करो, णमोकार की जाप करो, जिससे विश्व में शांति हो और अपने आपको शुभ में लगाओ। आपका धर्म कहाँ छूटा? हाँ, मन्दिर जाने पर रोक लगा दी गई है, क्यों? अकेले एक व्यक्ति के प्राण की बात होती कि तुम्हारे प्राण के लिए कोई चुनौती दे रहा है, मन्दिर जाओगे तो तुम्हें कत्ल कर देंगे, तो उससे मैं कहूँगा “डर मत, तेरा अगर पुण्य होगा तो तेरे लिए सूली भी सेज बन जाएगी।” लेकिन यहाँ एक व्यक्ति का सवाल नहीं है। ये संक्रमण है और वैश्विक आपदा का रूप लिए हुए है। आप घर से बाहर निकल रहे हैं तो लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन कर रहे हैं। एक व्यक्ति के संक्रमण से एक पूरा परिवार तबाह होगा और परिवार के बाद समाज और समाज के बाद पूरा राष्ट्र। इसे रोकना हमारी पहली जरूरत है। 

मैं अनेक बार इस मंच से बात कर चुका हूँ कि जैन धर्म में व्यक्तिधर्म से बड़ा राष्ट्रधर्म है। तुम्हारी पूजा, तुम्हारा अभिषेक, तुम्हारा दर्शन, तुम्हारा वन्दन ये तुम्हारा व्यक्ति धर्म है। पर सारे देश को संक्रमण से बचाना तुम्हारा राष्ट्र धर्म है। जो लोग इसकी उपेक्षा कर रहे हैं और अपनी जिद में लगे हैं, मेरी दृष्टि में राष्ट्रद्रोह का पाप कर रहे हैं। क्योंकि वे जान-बूझकर संक्रमण फैलाने जैसा कृत्य कर रहे हैं। जब ये बात पूरी तरह से जाहिर है, तो प्रबुद्ध समाज के लोगों को, ये मैं केवल जैनों के लिए नहीं बोल रहा हूँ, सबके लिए बोल रहा हूँ-‘धर्म मेरी आस्था में पलता, है मेरी क्रिया में नहीं।’ आप कहीं भी बैठ करके अन्तिम श्वाँस तक धर्म को धारण कीजिए और धर्म के मर्म को अपने हृदय में अंकित कीजिए, ‘मेरा धर्म तो मेरी आत्मा के साथ जुड़ा हुआ है और मेरा कुछ होने जाने वाला नहीं है। संसार में किसी का नहीं होने वाला। अगर मेरी अकाल मृत्यु भी होनी होगी तो हो जाएगी।’

“न में मृत्यु: कुतो भीतिर्न में व्याधि: कुतो व्यथा नाहं बालो न वृद्धोऽहं, न युवैतानि पुद्गले”

जब मेरी मृत्यु ही नहीं तो मैं डरूं किससे? ये व्यक्तिगत बात है। पर सामूहिक बात जब भी आती है, तो हमारी जवाबदारी है। जब लोग ही नहीं रहेगें तो धर्म का क्या होगा? इसलिए हमें समुदाय के हित की चिन्ता करनी चाहिए। हमलोगों ने जो ये प्रेरणा दी है केवल इसी वजह से दी है। लकीर के फकीर बनने से कुछ नहीं होगा। मैं उन तमाम धार्मिक जनों से कहता हूँ जो अपनी धर्मभीरुता के कारण इस बात से घबरा रहे हैं कि ‘मेरा सब छीन गया’, कुछ नहीं छिना। तुम्हारी आस्था जब तक तुम्हारे अन्दर है तुम्हारा धर्म तुमसे कभी दूर नहीं जाएगा और जिस दिन आस्था चली जाएगी, कितना भी धर्म करो कुछ काम में नहीं आएगा। उस आस्था को मजबूत बनाइए और इन सब चीजों को बिल्कुल दूर कीजिए। घर में बैठ करके जितना धर्म-ध्यान हो सके वो कीजिये। इधर-उधर की बातें करने की जगह केवल सबके प्रति मंगल कामना कीजिए। आप सुरक्षित हों और लोग भी सुरक्षित हो जाए, ये भावना भाइए। 

अभी लोगों के मन में लगता है, ‘हमें तो कुछ नहीं है।’ आपको कुछ नहीं है, पर ये कहा जाता है कि तीन हफ्ते तक कुछ पता नहीं लगता। अब किसका बताऊँ, अभी मंच में आने से पहले मुझसे कहा गया कि ब्रिटेन के प्रिंस को हो गया। बताओ दुनिया की हाई सिक्योरिटी में रहने वाला व्यक्ति अगर संक्रमित है, यदि ये सत्य है तो, सत्य है? तो फिर? इसलिए ये सबका राष्ट्रीय दायित्त्व है। कल प्रधानमंत्री जी ने जो बोला है उसका पालन करना चाहिए। मुझे तो यह देख कर बहुत आश्चर्य होता है कि एक छोटी सी अपील मात्र पर्याप्त होनी चाहिए, लेकिन कैसे बेवकूफ लोग हैं कि उनको भी डंडा मारना पड़ता है। प्रबुद्ध लोगों को अपना हित अगर समझ में नहीं आए तो ये तो बचपना है, मूर्खता है। इससे बचिए, हमें इसकी गम्भीरता को देखनी चाहिए। 

दुनिया के अनेक देशों में जो तबाही का मंजर बना उससे कुछ सीख लेना चाहिए। डरने की कोई बात नहीं है। पर संभलना तो सबको पड़ेगा ही। तभी आप अपना धर्म कर पाओगे, तभी आप संस्कृति की रक्षा कर पाओगे, समाज को आगे बढ़ा पाओगे, राष्ट्र को कुछ दिशा दे पाओगे। इसलिए इससे अपना प्राथमिक कर्तव्य मानीए और बाकी नियमों में थोड़ी बहुत शिथिलता जहाँ जैसी अपेक्षित है कर दीजिए, कोई संकोच मत कीजिये।

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