उपादान-उपादेय, निमित्त – नैमित्तिक, अन्तरंग- बहिरंग कारण, वस्तु-स्वभाव धम्मो, इनका अर्थ समझाएँ।
जैन अध्यात्म को समझना है, तो हमें दो-तीन बातों को समझ लेना आवश्यक है। जैन धर्म के अनुसार प्रत्येक कार्य की उत्पत्ति में विशेष कारण होते हैं। बिना कारण के कार्य नहीं होता और यह कारण भी दो प्रकार के होते हैं; एक उपादान कारण और दूसरा निमित्त कारण। उपादान कारण वह कारण होता है जो कार्य के रूप में परिवर्तित हो जाता है। निमित्त कारण वह है जो, कार्य को उत्पन्न करे यह आवश्यक नहीं, कार्य के रूप में परिणत नहीं होता, किन्तु कार्य को उत्पन्न करने में सहायक होता है; जैसे – अभी मैं आपके प्रश्न का उत्तर दे रहा हूँ, मेरी बात को आप सुन रहे हैं, यह आपका अपना उपादान है, यह भी आपका अपना उपादान है। अगर मैं बोलूं और आपके कान आपका साथ न दें तो आप मेरी बात सुन नहीं सकते, मैं बोलूं और आपका ध्यान इधर-उधर चला जाए तो भी आप मेरी बात सुन नहीं सकते; तो मैं हूँ निमित्त और आप हैं उपादान; तो उपादान में ही कार्य होता है, निमित्त केवल कारण होता है।
अब प्रश्न उठता है हम इसमें क्या करें? आध्यात्म में निमित्त और नैमित्तिक, उपादान और उपादेय इन दोनों भावों को साथ लेकर चलें। जब आपके साथ किसी के द्वारा कुछ गलत घटित हो जाए, कोई दुर्व्यवहार करें, सामने वाले को कोसना बंद कर दो- “वह क्या है, यह तो मेरे कर्म का उदय है। वह तो निमित्त बन कर आया है, मेरा ऐसा परिणमन होना लिखा था, मैं उसको क्यों दोष दूँ?” ऐसा कब करें? जब दूसरा कुछ गलत करे तब! अपने परिणाम को शान्त करो।
और गहरे जाओ-“मेरी आत्मा का कोई तिरस्कार नहीं कर सकता, कोई अपमान नहीं कर सकता, कोई बेज्जती नहीं कर सकता, वह तो अरूप, अरस, अगन्ध, अशब्द है। मेरी आत्मा से तो पर का कोई नाता नहीं, मैं क्यों विकल्प करूँ?” अपने परिणामों की शांति के लिए उपादान-परक दृष्टि बहुत बड़ा साधन है, किंतु, जब आप किसी के साथ गलत करेंगे तो सोचें- “हाय! मैंने कितना गलत कर दिया? अपने परिणाम खराब किए और मेरे निमित्त से सामने वाले का कितना अनिष्ट हो गया। इसका कितना पाप का बन्ध होगा?” यह सोचें।
दूसरा आपके साथ गलत करे तो सोचें- “यह मेरा उपादान था”, आप किसी के साथ गलत करें तो सोचें-“मैंने निमित्त बनकर गलत किया”; दूसरा तुम्हारे प्रति अच्छा करे तो सदैव यह कहो कि- “उसके निमित्त से हुआ”। अहंकार मत करना कि- “वह कौन होता है करने वाला, यह तो मेरे भाग्य में था वह तो सिर्फ निमित्त बना”, ऐसा मत करना। दूसरा तुम्हारे प्रति अच्छा करे तो उसके प्रति कृतज्ञ बनो, निमित्त को मानो; और तुम किसी के प्रति कभी अच्छा करो तो उसको भूल जाओ, पानी की लकीर की तरह, यह सोचो- “मैं कौन होता हूँ करने वाला? मैं तो सिर्फ निमित्त था, यह उसके भाग्य से हुआ”
यह उपादान-निमित्त की पूरी व्यवस्था है, बाकी पूरे शास्त्रों की जटिल भाषाओं में उलझने से कोई लाभ नहीं!
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