कर्म घुमाता है, किंतु, क्या केवल कर्म ही घुमाता है?

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शंका

हम पूजा में पढ़ते हैं, ‘जड़ कर्म घुमाता है मुझको, यह मिथ्या भ्रान्ति रही मेरी…।’ तथा गीता का उपदेश है, ‘जैसे कर्म करेगा वैसे फल देगा भगवान’, इन दोनों कथनों में क्या अन्तर है?

समाधान

‘जड़ कर्म घुमाता है मुझको, यह मिथ्या भ्रान्ति रही मेरी’, यह प्रसंग ठीक जगह पर ठीक तरीके से प्रस्तुत नहीं हुआ। जब कोई आत्म साधक अपने आत्मा के ध्यान में लवलीन हो तब यह ध्यान में रखना चाहिए कि कर्म हमारे परिणाम में निमित्त मात्र हैं। जड़ कर्म मेरे जीवन में मुझे विकृत नहीं करते; जड़ कर्म के उदय में जब मैं अपने भीतर अशुभ भाव लाता हूँ, तब मेरे अन्दर विकार आते हैं। तो मेरे मन का जो अशुभ भाव है; राग रूप, द्वेष रूप, मोह रूप- वह विकार ही मुझे दुखी बनाता है। उसी विकार के कारण नए कर्म का बन्ध होता हैं, और नए कर्म के बन्ध होने के कारण हम इस संसार में परिभ्रमण करते हैं। तो मूलतः हमारे संसार के परिभ्रमण का कारण हमारे भीतर का विकारी भाव है, जड़ कर्म नहीं! जड़ कर्म तो विकारी भावों का प्रतिफलन है। 

यह बात एक दृष्टि से ठीक है और ऐसा व्यक्ति कभी भी कर्म के निमित्त की तरफ दृष्टि नहीं रखता। लेकिन, जो व्यक्ति इस पंक्ति के आधार पर ऐसी धारणा बना ले कि ‘जड़ कर्म मेरा कुछ करता ही नहीं, जो कुछ है सो है’, तो यह भ्रम है। जड़ कर्म हमारी आत्मा को बहुत कष्ट देता है, दुखी करता है। स्वामी कुमार ने कार्तिकेय अनुप्रेक्षा में लिखा- 

का वि अउव्वा दीसदि पुग्गल-दव्वस्स एरिसी सत्ती।

केवल-णाण-सहावो विणासिदो जाइ जीवस्स।।

“इस पुद्गल कर्म की कैसी अपूर्व शक्ति दिखती है, जिसके कारण जीव का केवल ज्ञान रूप स्वभाव भी नष्ट हो गया।” 

आचार्य कुन्दकुन्द अपने पञ्चास्तिकाय में कहते हैं, 

“कम्मं णामसमक्खं सभावमध अप्पणो सहावेण।

अभिभूय णरं तिरियम णेरइयं वा सुरंग कुणदि।।”

“यह कर्म की कैसी ताकत है! जो जीव को अभिभूत करके नर, नारकी, तिर्यंच और देव रुप बना देती है।” ‘कर्म कुछ नहीं करता!’ ऐसा कहना भी एकांगी है और यह कहना कि ‘जड़ कर्म हमारा सब कुछ करता है’, तो यह कहना भी ठीक नहीं। यदि कर्म ही सब कुछ करता हो, तो व्यक्ति कर्म से कभी मुक्त नहीं हो सकता और कर्म कुछ नहीं करता तो हमारी आत्मशक्तियाँ कुंठित नहीं हो सकतीं। इन दोनों में अनेकान्तात्मक दृष्टिकोण रखना चाहिए।

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