धार्मिक क्रियाओं के साथ उचित व्यवहार भी अनिवार्य है!

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शंका

हमारे आस-पास कईं सारे ऐसे लोग हैं जो जैन धर्म की बातों को तो मानते हैं पर धार्मिक क्रियाओं को नहीं मानते हैं। और जो भक्त होते हैं उनके लौकिक आचरण पर सवाल करते हैं और वो तर्क करते हैं कि हम पाप नहीं करेंगे, हम कषाय नहीं करेंगे और हमारा जीवन जीने में जितना हमें धर्म चाहिए वो हम सब कर रहे हैं, पर क्रियाएँ क्यों करें? तो उनके तर्क का हम जवाब क्या दें?

समाधान

देखिये, बिल्कुल सही है और ऐसे में कहीं-कहीं धार्मिक क्रिया करने वाले लोग भी जिम्मेदार हैं। हम प्रायः धार्मिक क्रियाओं में बढ़-चढ़ करके हिस्सा लेने वाले लोगों में ऐसा देखते हैं कि वे जितने उत्साह के साथ धार्मिक क्रियाएँ करते हैं, अपने व्यवहार और विचार में वह उत्साह नहीं दिखाते। अगर हम धर्म की क्रिया कर रहे हैं तो हमारे धार्मिक क्रियाओं का प्रभाव हमारे प्रत्येक विचार और व्यवहार में परिलक्षित होना चाहिए, दिखाई देना चाहिए। और जब ऐसा नहीं दिखता तो लोग कहते हैं- ‘उनसे अच्छे तो हम हैं। हम पाप नहीं कर रहे हैं, हम कषाय नहीं कर रहे हैं तो क्या बुराई है?’ एक आदमी रोज मन्दिर जा रहा है लेकिन मन्दिर जाने के बाद भी एक दूसरे की आलोचना-प्रत्यालोचना कर रहा है, निंदा कर रहा है। तो वो मन्दिर जा करके कोई लाभ नहीं ले पा रहा है। एक आदमी रोज मन्दिर में दो घंटे पूजा कर रहा है लेकिन घर आ करके वैसे ही विषय-कषाय की बातें कर रहा है, आसक्ति उसके भीतर वैसी ही है। तो उसने मन्दिर जा करके क्या पाया? ऐसे लोगों को देखकर आज के लोग जो थोड़े आध्यात्मिक विचारों से भरे होते हैं, वो कहते हैं, ये धार्मिक क्रिया से कोई मतलब नहीं। 

मैं दोनों से ये कहना चाहूँगा, जो धार्मिक क्रियाएँ करते हैं पर अपने विचारों में उसे नहीं लाते वे अपने जीवन में कुछ सुधार करें और धार्मिक क्रियाओं के अनुकूल अपने विचार को ढ़ालना शुरू करें। जिनके विचार अच्छे हैं मैं उनकी बहुत सराहना करता हूँ। पर मैं उनसे ये कहना चाहूँगा जिस दिन वे धार्मिक क्रियाओं को अच्छे मन से करने लगेंगे उनके विचार और अच्छे हो जाएँगे, उनकी बैटरी और चार्ज हो जाएगी। क्योंकि धर्म की क्रिया हमारे धार्मिक विभावनाओं की उद्दीपन का साधन है। उससे हमारे विचारों में परिष्कार आता है, हमारे वृत्तियों का उदात्तीकरण होता है, हमारी सोच में व्यापक बदलाव आता है और यही बदलाव हमारे सम्पूर्ण जीवन व्यवहार को बदलता है। तो यदि हमारे धर्म के प्रति सच्ची श्रद्धा है, तो हम अपनी धार्मिक क्रियाओं को करें। पर एक रूटीन की भाँति न करके उसे अन्तःस्पर्शी बन करके करें। निश्चिता उसके सुपरिणाम हम सब को मिलेंगे।

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