नवग्रह की पूजा उचित?

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शंका

नवग्रह की पूजा उचित?

समाधान

ये सरासर गलत है। नव-ग्रह के संदर्भ में, मैंने पहले भी चर्चा की। पर पूरे भारतीय परंपरा में, बल्कि विश्व के अन्य भागों में भी इस बात को लेकर एक भ्रांत अवधारणा बनी हुई है। मैं समझता हूँ इस अवधारणा के उन्मूलन के लिए समय-समय पर इस पर चर्चा होनी चाहिए और व्यापक चर्चा होनी चाहिए। सबसे पहले तो मैं ये बताऊँ कि ग्रह- नक्षत्र का हमारे जीवन से सीधा कोई भी संबंध नहीं है, इसे एकदम स्पष्ट समझ लें। जो लोग कहते हैं कि ग्रह नक्षत्र के कारण हमारा बिगाड़ और सुधार होता है, वो कतई सही नहीं हैं। क्यों? इसे समझो, ग्रह नक्षत्र सौर मंडल में जितने भी हैं, इनकी अपनी गति निश्चित है। यह अपनी-अपनी गति से अपनी-अपनी गलियों में चलते हैं। १ सेकंड के लाखवें हिस्से में भी इनके गति के क्रम में अंतर नहीं होता है, FIX है। और जब ये चलते हैं, ये सब ऊर्जा के पिंड हैं, तो ऊर्जा पिंड होने से इनके भ्रमण से ब्रह्मांड के तत्वों में काफी कुछ परिवर्तन आता है। और ऐसा कहते हैं 

यत पिंडे तद ब्रह्मांडे

जो ब्रह्मांड के तत्व है वही तत्व हमारे शरीर में भी है। अब उनके संचार से उनके ब्रह्मांड के और हमारे शरीर के तत्वों के समीकरण में अंतर आ जाता है। हमारे अंदर के रसायन बदल जाते हैं। तो रसायन बदलते हैं, तो हमारी आत्मा और कर्म का भी जो संबंध है, वह एक रासायनिक संबंध है। तो भीतर के रसायनों का जब समीकरण बदलता है, तो हमारे कर्मों के रसायन में यानि कर्मों की केमिस्ट्री भी बदल जाती है। और कर्मों की केमिस्ट्री बदल जाती है, तो अशुभ कर्म उदय में आ जाते हैं, शुभ कर्म प्रभावित हो जाते हैं। कभी शुभ कर्म उदय में आ जाते हैं,अशुभ कर्म प्रभावित हो जाते हैं। भीतर जैसा आपका कंपोजीशन हुआ, आपके अंदर वैसे कर्म का उदय आया। तो उन गृह-नक्षत्रों ने कुछ नहीं किया। किसके कारण आपके जीवन में प्रभाव उत्पन्न हुआ? वह आपके भीतर रहने वाले कर्मों में होने वाले परिवर्तन के कारण। और कर्मों का यह परिवर्तन क्यों हुआ? ब्रह्मांड के रसायनों के परिवर्तन के कारण। ब्रह्मांड के रसायनों का परिवर्तन क्यों हुआ? यह सारे सौरमंडल के गति के कारण, उनके संचार के कारण। तो वो तो नित्यगति वाले, वो चलते अपने चाल से। उनका चलना नियत है, वो आपके लिए नहीं चल रहे हैं। अब वो चल रहे हैं, उससे आपके अंदर अंतर आ रहा है। 

तो महाराज, ज्योतिष का सिद्धांत गलत है? ज्योतिष का सिद्धांत गलत नहीं, ज्योतिष के सिद्धांत की समझ गलत है। फिर क्या हुआ, एक विज्ञान विकसित किया गया। कि लोगों ने देखा इनकी गति एकदम फिक्स है, निर्धारित है। तो इनके भ्रमण से जो तत्वों का परिवर्तन है, वो कैसा होगा? उसे दिव्यज्ञानीओं ने समझा-जाना और उसके हिसाब से एक चक्र बनाया होरोस्कोप के रूप में, जिसे आप कुंडली बोलते हैं। और उसमें अलग-अलग ग्रहों को बैठा दिया। प्रतीकात्मक भाषा में कहा जाने लगा की ये इसके लग्न में यह बैठा है, इसके इस ग्रह की महादशा, इसकी अंतर्दशा, इसकी प्रत्यंतर दशा, ये इसका वक्री है, इसकी उस पर दृष्टि है। एक प्रतीकात्मक भाषा थी। न राहु परेशान करता न केतु परेशान करता, ना शनि परेशान करता ना मंगल दंगल करता। ये तो अपनी गति से चल रहे हैं, लेकिन उसके हिसाब से एक गणित विकसित किया गया। और उस गणित के हिसाब से सब कुछ डेवलप हो गया। कालांतर में लोगों ने उन्हीं को पूजना शुरू कर दिया। अब बहुत सारे पंडितों ने कुछ इस तरह की प्रक्रिया बना ली जिससे उनकी आमदनी का जरिया हो गया। और ज्योतिष के नाम पर ढेर सारे टोटकेबाजियां भी होने लगीं। लोगों ने इसे खूब फैलाया और एक परंपरा ग्रह-नक्षत्रों की पूजा में लीन हो गई। सूर्य-चंद्रमा को ग्रह मानने की परंपरा जैन परंपरा से बहिर्भूत परंपरा रही है। जब ग्रह-नक्षत्रों को लोग पूजने लगे आपने ग्रहों की शांति के लिए, और सोचे की ये ग्रह नक्षत्र हमें सुख-दुख देते हैं, तो उन्हें भगवान मानने लगे। उनके मंदिर बनने लगे। उनकी पूजा-अर्चना होने लगी। हमारे जैन आचार्यों को यह बात नहीं जमी, तो उन्होंने क्या किया? 

हमारे तीर्थंकर प्रतिमाओं के पाद मूल में इन ग्रह-नक्षत्रों यानी सूर्य चंद्रमा आदिक की मूर्त का अंकल करना शुरू कर दिया बंदना मुद्रा में। आप कभी देवगढ़ जाएं, शिरोंजी जाएं नवमी-आठवीं, नवमी-दसवीं शताब्दी की कई प्रतिमाएं हैं, जहां उनके पादपीठ में बंदना मुद्रा में ये ग्रह-नक्षत्र अंकित है। ऐसा क्यों किया, ऐसा केवल इसलिए किया की लोग यह जान सके कि ग्रह-नक्षत्र भी भगवान ही को पूजते हैं, इसलिए इनको पूजने की जरूरत नहीं है। इससे ज्यादा ताकत भगवान के पास है। तो ये चीज़ हुआ, अब बाद में आ गया। कालांतर में क्या हुआ कि जब इनके प्रति लोगों का रुझान बढ़ने लगा, तो लोगों को उनसे बचाने के लिए इन नवग्रहों का जैनीकरण किया जाने लगा। और तीर्थंकरों के साथ दशांश मैत्री मिलाकर अलग अलग तीर्थंकर को अलग-अलग ग्रह शांति का प्रतीक बना दिया गया। नवग्रह का जो प्राचीन वर्णन आज वर्तमान में मिलता है, पंडित आशाधरजी के द्वारा लिखित नवग्रह का वर्णन है। वह ऐसा विचित्र वर्णन है, जिसका जैन धर्म से कहीं कोई संबंध नहीं है। कहते हैं – “हे सूर्य, तू कापालिक की पूजा से संतुष्ट हो। चंद्र तू तापस की पूजा से संतुष्ट हो।” और किसी को कापालीक की, किसी को तापस की, किसी को वर्णी की अलग-अलग कैसे किया और उसका जो वर्णन है, वो जैन धर्म से कहीं मेल नहीं खाता। बड़ा अद्भुत वर्णन है। और फिर जहाँ हमारे यहाँ  

ज्योतिषका: सूर्या-चंद्रमसौ ग्रह-नक्षत्र प्रकीर्णक तारकाश्च:।

उसमें सूर्य को प्रतिन्द्र और चन्द्र को इंद्र माना गया और ग्रहों की संख्या ८८ मानी गई, नक्षत्र २८ माने गए। तो नवग्रह तो जैन धर्म का शब्द ही नहीं है। और ये जोड़ा जाने लगा क्योंकि उनका चलन बढ़ गया था। और बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध और २१ वीं शताब्दी में और एक कदम बढ़ गए। तीर्थंकरों को उनके साथ जोड़कर अलग से नवग्रह अरिष्ट निवारण या नवग्रह मंदिर बनने लगे, जिसमें वही नवग्रह को शांत करने वाले भगवान बिराजे जाने लगे। अरे भैया! मानता हूँ तुम भगवान को ही पूज रहे हो, लेकिन किस लिए पूज रहे हो? ग्रह-शांति के लिए, की पाप-शांति के लिए? ध्यान रखो जब तक परिग्रह है, तब तक ग्रह लगा ही रहेगा। समझ गए? यह ग्रह क्या है? इससे अपने आप को बचाओ, उद्देश्य बदल गया। आने वाले दिनों में बड़ा खतरा है इससे। खतरा यह है कि हमारी पीढ़ियां फिर २४ तीर्थंकरों को अपना मूल-आराध्य मानना बंद कर देंगी। इन ही ७ को पूजेगी। कितने, सात हैं, नौ हैं, कितने जोड़े? मुझे तो यह भी पता नहीं की कौन से भगवान से कौन सा ग्रह शांत होता है। मैं इनमें विश्वास ही नहीं करता। मैं यह मानता हूँ २४ के २४ भगवान पर्याप्त बराबर है, किसी को भी पूजा कर लो सब शांत होगा। ग्रह भी टलेगा और परिग्रह भी टलेगा। भगवान की पूजा और आराधना ग्रह शांति के लिए नहीं कर्म काटने के लिए करो, तब तुम्हारे जीवन का उद्धार होगा। गलत उद्देश्य से भर कर जिनेंद्र भगवान की आप यदि आराधना करोगे तो वो कभी सार्थक नहीं होगा।

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