क्या पूजा-पाठ के साथ स्वाध्याय ज़रूरी है?
बहुत अच्छी शुभासंशा है आपकी अपने जीवन साथी के प्रति। हर जीवनसंगिनी ऐसा सोच ले तो फिर तो भला ही भला है। व्यक्ति यदि पूजा-पाठ, सामायिक, जाप करता है और स्वाध्याय नहीं करता तो कोशिश करना चाहिए कि वो करें पर हर व्यक्ति की अपनी-अपनी अभिरुचि होती है।
एक सज्जन है कटनी में- रमेश चंद भजन सागर। उनको अपनी पूजा भक्ति में बड़ा आनंद आता है और वो कहा करते हैं, “महाराज जी! मुझे स्वाध्याय में रूचि नहीं है, पूजा में बहुत मन लगता है और मैं मग्न हो जाता हूँ और मुझे ऐसे लगता है कि मैं पूजा नहीं कर रहा हूँ भगवान से बात कर रहा हूँ।” तो मैंने उनसे कहा आप पूजा नहीं पूजा में स्वाध्याय के फल को भी प्राप्त कर रहे है।
जिसको पूजा करते-करते यह एहसास होने लगे कि मैं पूजा नहीं भगवान से संवाद जोड़ रहा हूँ, उसकी पूजा जीवंत हो उठेगी। तो पूजा आदि की क्रिया अगर व्यक्ति मन से कर रहा है तो हो सकता है वह व्यक्ति पूजन से भी वो लाभ प्राप्त कर ले जो स्वाध्याय से न पा सके। तो स्वाध्याय करने वाला स्वाध्याय करे, पूजन करने वाला पूजन करे, पर आप दोनों में पूछो पहले किसे करें तो मैं कहूँगा, पहले आवश्यक करो बाद में उत्तर गुण की बात करो।
स्वाध्याय में आप पढ़ते हैं कि ‘पात्र दान और देव पूजा’ यह श्रावक का धर्म है और आप पात्र दान, पूजा न करो, पन्ने पलटने लगो तो यह तुम्हारा धर्म ठीक नहीं है। तो उनके लिए मैं आशीर्वाद देता हूँ कि जो पूजा जाप कर रहे हो, वो करते रहो और स्वाध्याय करो। जब इतनी अच्छी जीवनसंगिनी मिली है तो उनकी शुभासंशा को साकार करो। मोक्ष मार्ग में बढ़ना है तो अंश में क्या पूरी तरह बाहर निकल जाओ, फिर क्या! मजा ही मजा है।
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