अर्थ से ज़्यादा परमार्थ महत्त्वपूर्ण है पर कभी कभी ऐसा होता है कि अर्थ के अभाव में पुरुषार्थ के लिए कदम आगे नहीं बढ़ पाते। ऐसी स्थिति में हम क्या करें?
मीनाक्षी जैन, 10 बी स्कीम
अर्थ को परमार्थ में नियोजित करना अच्छी बात है लेकिन ऐसा बिल्कुल भी जरूरी नहीं कि परमार्थ की पूर्ति अर्थ से ही हो। अगर परमार्थ की पूर्ति में अर्थ अनिवार्य हो तो हमारा तो परमार्थ होगा ही नहीं। हमारे पास अर्थ नहीं है, पर परमार्थ है। परमार्थ की सहायता पूर्ति में अर्थ सहायक है। साधन है, साध्य नहीं। अगर तुम्हारे पास अर्थ है, तो अर्थ को परमार्थ में लगाओ और अगर अर्थ नहीं तो जो लोग अपना अर्थ परमार्थ में लगा रहे है, उनकी अनुमोदना करके पुण्य कमाओ, तुम्हारा भी काम हो जायेगा। एक बार एक व्यक्ति ने मुझसे कहा कि धार्मिक आयोजनों में बोलियाँ केवल पैसे वालों के लिये लगती है, जिसके पास अर्थ की कमी है उसके लिए नहीं और न ही उसे मौका मिलता है। मैंने कहा, “यह गलत है”। जो भी धार्मिक आयोजन होते है, व्ययसाध्य होते है, तो जो द्रव्य लगाता है उसको तो अवसर मिलेगा ही मिलेगा। लेकिन धर्म करने का मतलब यह नहीं है कि केवल पैसे से ही आपका धर्म हो। अगर आप धर्म करना चाहते है, तो आप पीछे बैठकर भी कर सकते है। णमोकार जपने में कोई पैसा लगता है? भगवान का नाम लेने में कोई पैसा लगता हैं? सामायिक करने में कोई पैसा लगता है? कोई त्याग-तप करने का पैसा लगता है? ठीक है, कोई अनुष्ठान में अग्रिम भूमिका निभाने में आपको पैसा बाधक हो सकता है, लेकिन धर्म के क्षेत्र में पीछे रहने वाला भी बहुत आगे रह सकता है। इसीलिए आगे आने की बात मत सोचिये, धर्म को जीने का प्रयास कीजिये।
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