आहार के समय किया गया मुनियों का पूजन जिन-पूजन के समान है!

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शंका

पड़गाहन करते हुए महाराज जी की पूजन करने से, क्या पूजा का नियम पूरा हो जाता है?

समाधान

एक बार की बात है, संघ का विहार हो रहा था, अचानक सुबह-सुबह एक छोटे से गाँव में हम पहुँचे। आचार्य श्री बिना सूचना के चले गये। एक बहन जी आहार के बाद २ बजे आईं और बोलीं कि ‘हमसे बहुत बड़ी गलती हो गई।’ हमने कहा कि “क्या हुआ?” चार घर की समाज थी, तीन शिफ्ट में साधुओं के आहार हुए थे। वे बोलीं- ‘महाराज जी को आहार कराया और उसके बाद हमने भोजन कर लिया। बाद में हमें ख्याल आया कि आज तो हमने पूजा ही नहीं की।’ तो आचार्य श्री ने उनसे बस यही पूछा कि ‘चौके में महाराज जी आये थे?’ बोली- ‘आये थे।’ आचार्य श्री ने पूछा कि ‘पूजन किया था?’ तो उन्होंने कहा कि ‘हाँ! की थी।’ आचार्य श्री ने कहा कि ‘इससे तुम्हारा नियम पूरा हो गया।’ आचार्य समंतभद्र जी के कथनानुसार ‘आहार दान, अतिथि संविभाग या वैयावृत्ति भी जिनेन्द्र भगवान की पूजा है।’ लेकिन ऐसा रोज-रोज नहीं करना, कभी-कभी करना।

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