क्या धर्म को बचाने के लिए अस्त्र उठाना उचित है?

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शंका

जहाँ एक तरफ ज्ञान कहता है कि जिन प्रतिमाओं का चोरी होना, मुनियों पर हमले होना और तीर्थ क्षेत्रों का नियंत्रण अजैन समाज के हाथ में होना काल के प्रभाव से स्वाभाविक है, वहीं दूसरी तरफ भक्ति कहती है कि ‘धर्म को बचाने के लिए मैं तलवार हाथ में ले लूं’ तो किसकी सुनना चाहिये?

समाधान

हमारे यहाँ दो तरह की व्यवस्था दी गई हैं- हम किसी पर आक्रमण न करें लेकिन अपनी सुरक्षा के लिए यदि हमें अस्त्र उठाना पड़े तो उसका निषेध नहीं है। 

जैन धर्म में गृहस्थों के लिए कहा है कि आक्रामक होना हिंसा है, रक्षा के लिए अस्त्र उठाना रक्षात्मक होना है। अपने धर्म, अपने धर्मायतन, अपनी संस्कृति की रक्षा करना गृहस्थों का कर्तव्य है। अगर हम अपने ज्ञान का इस्तेमाल करें और ये कहें कि ‘ठीक है जो होना था सो हो गया’, ऐसा कहना एक प्रकार की कायरता है, धर्म शास्त्र ऐसी आज्ञा आप गृहस्थों को नहीं देता। शास्त्र कहता है कि -यदि ऐसा करोगे तो पूरी व्यवस्थायें चरमरा जाएंगी, अराजकता फैलेगी। उस अराजकता को नियंत्रित करके तुम्हें पाठ पढ़ाना चाहिए। रामचंद्र जी ने सीता के अपहरण के बाद रावण पर आक्रमण करने की जगह यह सोच लिया होता- ‘अरे जो होना था तो हो गया, अब क्या करना है’ तो क्या होता? कोई भी सीता आज सुरक्षित नहीं रहती। रामचंद्र जी का उस समय यह राजधर्म था कि रावण जैसे आतताई, आक्रमणकारी को सबक सिखायें, रास्ते पर लगायें ताकि आने वाले दिनों में हमारी सीतायें सुरक्षित हो सके। इसी तरीके से अगर हमारे धर्म और धर्मायतनों पर कोई भी हमला करता है, तो हमें शक्ति भर प्रयास करके उसका प्रतिकार करना चाहिए उसे स्वीकारना नहीं चाहिए।

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