क्या बिना अर्थ जाने स्तोत्र पाठ आदि पढ़ना सार्थक है?
आपको अगर दुनिया की बातें पता हैं, तो जो पढ़ते हैं उनका अर्थ भी पता होना चाहिये। पर ऐसा मत सोचो जिन्हें अर्थ पता नहीं उनको इसका कोई असर नहीं होता। यह भक्तामर आदि स्तोत्र, स्तोत्र ही नहीं एक मंत्र है। मंत्र में श्रद्धा की प्रमुखता होती है अर्थ कि नहीं। यदि भाव से भरकर के, श्रद्धा से भरकर आप इन्हें पढ़े लें तो बहुत फरक पड़ सकता है।
मैं एक प्रसंग सुनाता हूँ। पंडित जगनमोहनलाल जी सिद्धांत शास्त्री की एक बहन थी। वह एक प्रकार से निरक्षर थी। वह षष्टखण्डागम, कषायपाहुड़ का स्वाध्याय करती थी, तो प्राकृत से करती थी। जिसे हिंदी भी ढंग से नहीं आती, वह प्राकृत मूल से पढ़ती थी। देवनागरी लिपि में लिखा गया था तो शब्द तो पढ़ लेती थी, जिनका अर्थ बिल्कुल नहीं जानती थी। पंडितजी ने एक दिन कहा कि “तुमको कुछ आता नहीं है, तो तुम काहे को पढ़ती हो ऊपर का, नीचे का पढ़ो जो हिन्दी में है, कुछ समझ में आयेगा।” उन की बहन जी ने कहा, “हिंदी हम काहे पढ़े, यह तो तुम्हारी भाषा है, हम तो आचार्य की भाषा पढ़ेंगे; आचार्य ने जो लिखा वह पढ़ेंगे, उसमें मेरा कल्याण है। हिंदी तुम पंडितों ने लिखी, तुम्हारी हम क्यों पढ़ें?” पंडितजी ने स्वयं यह बात वाचना में सुनाई थी १९८८ में; उनका अन्तिम समय इतना उत्कृष्ट हुआ जो अच्छे-अच्छे योगियों का नहीं होता। उस महिला को अपने अन्त का आभास हो गया, तीन दिन एकान्त में रहकर, निषपरिग्रह रहकर, उपवास पूर्वक उसने अपने देह का परित्याग किया। यह पुण्य है, तो भावना के आगे कुछ काम नहीं होता। लेकिन इसका मतलब हम यह नहीं सोचे कि अर्थ जानने का उद्यम नहीं करें। अर्थ जानने का भी प्रयास करें।
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