विजातीय विवाह आज के परिपेक्ष्य में धर्म की दृष्टि से

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शंका

विजातीय विवाह आज के परिपेक्ष्य में धर्म की दृष्टि से

समाधान

विजाति के दो रूप हैं – एक विजाति और दूसरा विधर्म! हमारे समाज में कट्टरता ऐसी रही है कि जैन समाज में दिगंबर जैन समाज में भी रहने वाली उप-जातियों में अगर किसी ने विवाह सम्बन्ध किये तो हमने उन्हें समाज से बाहर कर दिया। हमारे आगम में दो बातें कही गई है- वर्ण संकरण और वर्ण लाभ, वर्ण संकरण का जैन आगम में सर्वथा निषेध है। वर्ण संकरण का मतलब किसी को अपना लेना स्वीकार लेना और अपने आप को उसमें मिला देना, खिचड़ी बना देना। वर्ण लाभ का तात्पर्य है सामने वाले को लाकर अपने अनुरूप ढाल लेना अपना बना लेना। वर्ण लाभ की बहुत सारी व्यवस्थाएँ हैं; हमारे क्रियाओं में संस्कारों में, गृहस्थ के कर्तान्व्य क्रियाओं में, एक वर्ण लाभ क्रिया भी है। यह वर्ण लाभ की व्यवस्था हमारे शास्त्रों में है। चक्रवर्ती ने जो मलेच्छखंड की कन्याओं से विवाह करके उसे अपने जैन धर्म में ढाला यह एक प्रकार का वर्ण लाभ था।

पर आज की जो समाज व्यवस्था है और उसमें जो तस्वीर उभर रही है उसमें वर्ण लाभ की संभावनाएँ क्षीण हैं ,वर्ण संकरण की संभावना अधिक है। विधर्मी लड़की को लाने से वह जैन होने की जगह पूरे घर को अजैन बना देती है; ऐसे उदाहरण बहुत देखने को मिले हैं; इसलिए इसे रोकना चाहिए। आगम की बात अगर आप पूछती हो तो आगम में इस प्रकार की पूर्ण व्यवस्था है कि अगर कोई अजैन व्यक्ति विधिवत जैन धर्म को अंगीकार करे तो उसके मिथ्यात्व का परित्याग करा कर उसे जैन धर्म में दीक्षित किया जा सकता है। हम दूर न जाएँ, इसी खंडेलवाल जैन समाज के इतिहास को पलट कर देखो, सब अजैन थे, जिन सेन और यशोधर महाराज की कृपा हुई जिन्होंने हम सबको जैन धर्म में दीक्षित कराया और इस जैन धर्म को पालन आज तक करते आ रहे हैं। इस परिवर्तन (conversion) की व्यवस्था हमारे आगम में है, शास्त्र इसको बताता है। लेकिन आज समाज का हाजमा खराब हो गया। इसलिए कई बातें ऐसी है जो शास्त्र के द्वारा सम्मत होने के बाद भी, समाज-अनुकूल ना होने के कारण हम लोगों को गौण करनी पड़ती हैं।

इसलिए आप मुझसे पूछो तो मैं कहूँगा की दिगंबर जैन समाज के भीतर कोई भी संबंध अगर करें तो वह धर्म की दृष्टि से या समाज की दृष्टि से कतई नुकसान देय नहीं है, पर विधर्मी विवाह कतई अनुकरणीय नहीं है। मैंने बहुत नज़दीकी से देखा है, विधर्म विवाह अपवाद स्वरूप ही फलते हैं प्रायः टूट जाते हैं और नुकसान देते हैं।

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