‘बुरा मत सोचो’ की महिमा!

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शंका

सभी कहते हैं कि ‘बुरा मत बोलो, बुरा मत कहो और बुरा मत देखो’; लेकिन जैन धर्म ही कहता है – ‘बुरा मत सोचो’, इस पर थोड़ा प्रकाश डालिए।

समाधान

आपने कहा बुरा मत सोचो। इस में ही सब आ जाता है क्योंकि हमारी सारी प्रवृत्ति हमारी सोच पर निर्भर करती है। अच्छी सोच अच्छी प्रवृत्ति की जन्मदात्री होती है। हमारा देखना, सुनना और बोलना ये एक प्रकार की प्रकट प्रवृत्तियाँ हैं। इन प्रवृत्तियों की संप्रेरक यदि कोई है, तो वो हमारे अन्दर की सोच है। अगर सोच गलत होगी, तो हमारी प्रवृत्तियाँ निश्चित ही गलत होगी और अगर सोच अच्छी होगी तो हमारी प्रवृत्ति अच्छी होगी। 

धर्म कहता है कि मूल को संभालो। अगर आपने मूल को पकड़ लिया तो बाकी सब चीजें अपने आप शुद्ध हो जायेगी। जैन साधना पूरी तरह सोच को बदलने की कोशिश करती है। भावना को विशुद्ध बनाने की बात करती है, चित्त ही धारा को निर्मल बनाने की बात करती है। अगर वो निर्मल हो गयी, उसका मूल स्रोत अगर परिवर्तित हो गया, तो नीचे तो सब अपने आप परिवर्तित हो ही जाना है। इसलिए बाहर की प्रवृत्ति को बदलने की जगह उस प्रवृत्ति की जन्मदात्री वृत्ति, जो हमारी चिंतन का धारा से उत्पन्न होती है, उसे ठीक करना चाहिए।

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