सर्वज्ञ सब जानते हैं तो अकाल मृत्यु कैसे मानें?

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शंका

आयुकर्म की उद्दीरणा होती है, तो अकाल मृत्यु होती है परन्तु सर्वज्ञ के ज्ञान में तो उन्हें मालूम है कि इसकी मृत्यु इस तरह से होनी है, सर्वज्ञा के ज्ञान में उद्दीरणा कैसे माने?

समाधान

अगर सर्वज्ञ के ज्ञान का प्रश्न उठाओगे तो जो होना है सो होना है। आपका पूछना ये भी होनी है, मुझे बताना है ये भी होनी है, मुझे समझाना है यह भी होनी है और आपका न समझना यह भी होनी है। अगर आपके समझने में होनी होगी तो हो जाएगा; नहीं तो समझ में नहीं आएगा। फिर एक ही प्रश्न है और एक ही उत्तर कि ऐसा क्यों हुआ क्योंकि ऐसा ही होना था, ऐसा क्यों नहीं हुआ क्योंकि ऐसा नहीं होना था। जैन दर्शन में इस प्रकार के मृत विचारों को कोई स्थान नहीं। जैन दर्शन कहता है- कार्यक्रमानुक्रम कारणक्रमानुक्रम 

कार्य का क्रमानुक्रम कारण के क्रमानुक्रम से होता है। एक व्यक्ति ने एक कोटि पूर्व की आयु बांधी तो वो एक करोड़ पूर्व तक जीने की योग्यता रखता है लेकिन कोई जरूरी नहीं है कि एक करोड़ पूर्व तक जिए ही। अगर निमित्त मिल जाए तो एक अन्तर मुहूर्त में भी मर सकता है यानि करोड़ों वर्ष की आयु लेने वाला व्यक्ति मिनटों में अपने जीवन को समाप्त कर सकता है, यह भगवान ने कहा है। भगवान की वाणी है और जो मिनटों में समाप्त करेगा, उसको हम अकाल मरण कहेंगे। अब आप कहो कि भगवान की वाणी में उसको मरना ही था तो हम अकाल क्यों कहे? अकाल में मरना था तो काल में मरा कि अकाल में मरा? एक पेड़ में फल हुआ वह पक के टपका और एक फल है जो पकने के पहले ही टपक गया। हम ये कहें कि इस फल को इतने दिन में ही टपकना था और उसको इतने ही दिन में टपकना था, ऐसा नहीं है, बीच में किसी ने तोड़ दिया। 

असमय में भी जीव का अन्त होता है इसे अकाल मरण कहते हैं। भगवान की वाणी को हम अपने सिद्धान्त का आधार नहीं बना सकते। भगवान ने जो सिद्धान्त हमारे लिए प्रतिपादित किया है उस पर ही श्रद्धान करना चाहिए। हाँ, इस बात को हम कब अपने जीवन में लायें? जब किसी की असमय में मृत्यु हो जाए और मन अधीर होने लगे तो अपने चित्त को समाधान देने के लिए सोचो भैया, ऐसी ही होनी थी तो वो चित्त के समाधान की भावना है न कि सिद्धान्त की।

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