पुद्गल ही करने वाला, पुद्गल ही उसको भोगने वाला, फिर जीव इसमें क्यों बंधा है?

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शंका

शरीर पुद्गल है, कर्म पुद्गल है और कर्म कर्म से बंधा है, कर्म शरीर से बंधा है। जीव का इसमें कोई रोल नहीं है इसलिए कर्म ही करता है, कर्म ही भोगता है। आचार्य कुन्दकुन्द के समय में भी ऐसी भाषा का प्रयोग करने वाले लोग इस धरती पर थे। आचार्य ने उन्हें ‘सांख दर्शन’ का अनुयायी कहकर के संबोधित किया। उन्होंने कहा कि- “तुमने धर्म के मर्म को ठीक ढंग से समझा नहीं, कर्म निश्चित रूप से पुद्गल है, शरीर भी पुद्गल है, पुद्गल का कर्ता पुद्गल होता है। लेकिन तुम इस भूल में हो कि जीव को सदैव तुमने सर्वथा चैतन्य मान लिया।” संसारी प्राणी भी कथनचित अचेतन है। और इस संसारी प्राणी के साथ अनादि से कर्म का सम्बन्ध बना हुआ है। इसलिए चेतन होकर के भी अचेतन जैसा हो गया, अमूर्त होकर के भी मूर्त जैसा हो गया और इस अमूर्त होकर के भी मूर्त जैसा होने के कारण इस जीव की ऐसी दुर्दशा हो रही है। कर्म के संसर्ग में रहने के कारण जीव का यह हाल हो रहा है।

एक लुहार अपनी लोहशाला में गया और सबसे पहले धोकनी सुलगाने के क्रम में उसने अग्नि को प्रणाम किया और बाद में उसमें एक लोहा डाला और लोहा डालने के बाद लोहे को तपाया। लोहा लाल हो गया, बाद में उसे मेहन पर रखा और घन पटकना शुरू किया। जैसे ही अग्नि से तप्तायमान लोहे पर घन मारा, अग्नि उछट कर लुहार के पास पहुंची; बोली-“यह क्या नाटक है। अभी आए थे तो सबसे पहले मुझे प्रणाम किया अब उल्टा मुझ पर घन मार रहे हो।” उसने कहा, “मैं तुझे तो आज भी प्रणाम करता हूँ लेकिन लोहे की संगति में तू आ गई इसलिए तेरी पिटाई हो रही है।” शुद्ध जीव की कोई पिटाई नहीं होती, पर कर्म की संगति में रहने वाले जीव की सतत पिटाई होती रहती है।

समाधान
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