भव, भवांतर, भाग्य आदि निश्चित है तो पुरुषार्थ का क्या उपयोग?

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शंका

हर जीव का भव निश्चित है, भवांतर निश्चित है, योनि निश्चित है, इसीलिए मेरे ख्याल से भाग्य भी निश्चित है और भाग्य directly proportional to (सीधे अनुपात में) पुरुषार्थ होता है। तो पुरुषार्थ में कुछ ऊपर या नीचे करने की कोई गुंजाइश है?

समाधान

आपने बहुत गम्भीर प्रश्न पूछा है। मैं आपके प्रश्न के विषय में केवल इतना ही कहता हूँँ यदि सब निश्चित है, तो आपका पूछना भी निश्चित रहा और मेरा उत्तर देना भी निश्चित है। अधूरा उत्तर देना भी निश्चित है, पूरा उत्तर देना निश्चित नहीं है। आपको पूछना, मुझे समझाना यह सब निश्चित है। आपका न समझना यह भी निश्चित और मेरा न समझा पाना यह भी निश्चित। 

एक ही प्रश्न, ऐसा क्यों हुआ, क्योंकि यह निश्चित था; और ऐसा क्यो नहीं हुआ, क्योंकि यह निश्चित नहीं था। ऐसा जैन धर्म में कोई कोई सिद्धान्त नहीं है। यह सब चीजें जैन धर्म को ठीक रीति से न समझ पाने के कारण है। जैन धर्म यह नहीं कहता कि जो कुछ है, जो जैसा होना है, सब निश्चित है। यह एकान्त है। अनेकांत की दृष्टि से स्वीकारो तो कोई हानि नहीं। जैन धर्म नियतवादी भी है और अनियतवादी भी है। जैन धर्म में कहा गया है कि जब कुछ अघट घट जाए और तुम्हारे मन में अधीरता आने लगे, मन व्याकुल होने लगे, तो अपने मन को शान्त करने के लिए, चित्त के समाधान के लिए भावना भाओ जो होना था सो हो गया, यही निश्चित था। लेकिन जब कुछ काम करने के लिए प्रेरित हो, तो इस अवधारणा से मत जुड़ो कि जो होना होगा सो हो जाएगा। अपितु यह सोचो कि जैसा मैं करूँगा वैसा ही होगा क्योंकि जैसी कारण सामग्री होगी और जैसा आप उसमे अपना पुरुषार्थ जोड़ोगे, परिणाम उसी तरीके का होगा। 

आचार्य अकलंकदेव से किसी ने प्रश्न पूछा कि “भगवन! इतनी सारी रामायण क्यों बोल रहे हो? क्योंकि भव्य का मोक्ष तो तभी होगा जब उसका समय आएगा। तो इतनी सारी बातें क्यो कह रहे हो?’ तो उन्होंने कहा- “नहीं, तुमने जैन धर्म के सार को ढंग से समझा नहीं। निर्जरा के लिए काल कोई नियात्मक तत्त्व नहीं है। कुछ भव्य संख्यात् काल में मोक्ष जायेंगे, कुछ असंख्यात् में, और कुछ अनन्त में, और कुछ अनन्तानन्त काल में भी नहीं जाएँगे। इसलिए मोक्ष के लिए काल कोई नियात्मक तत्त्व नहीं है।

हमारे हाथ में जो है हम वो करें। प्रयत्न हमारे हाथ में है, परिणाम नहीं तो पुरुषार्थी बनकर के काम करें।

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