प्यार से अहंकार को कैसे जीता जाए?

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शंका

प्यार से अहंकार को कैसे जीता जाए और अहंकार रहते हुए यथार्थ धर्म कैसे किया जा सकता है?

समाधान

प्यार से अहंकार को जीता जा सकता है बशर्ते हम तकरार से बचने की कोशिश करें। तकरार, अहंकार की परिणति है। अहंकार होता है, दो प्रेमियों के बीच में भी अहंकार होता है, वह आड़े आता है लेकिन एक सीमा में हो, जब तक की तकरार न हो। मैं और तू में कोई बाधा नहीं है, बाधा ‘तू-तू, मैं-मैं’ में है। अहंकार जब विकृत रूप में आ जाता है, तो तू-तू, मैं-मैं होता है। प्यार होता है, तो वह कहता है – मैं तू, तू मैं, और तकरार होने पर होता है ‘तू-तू, मैं-मैं’। तकरार को टालिए, प्यार को अपनाइये। यदि कहीं हो तो झुक जाइए। 

किसी व्यक्ति के हृदय में किसी के प्रति लगाव होता है, तो दो काम होते हैं – जिसके प्रति तुम्हारे मन में प्यार हो उसके दोष दिखते नहीं और जिसके प्रति तुम्हारे मन में प्यार हो उसके सामने दोषों को स्वीकारने में संकोच नहीं होता। तो प्यार होने पर दोष दिखता नहीं और प्यार होने पर दोष को बताने में संकोच नहीं होता। क्या सबसे दिल की बात कहते हो? किससे कहते हो? जिससे अपना लगाव है, जो दिल में बैठता है उसी को दिल की बात कही जाती है ना, यह प्यार है।  प्यार हमारे दोषों का इजहार भी करा देता है और सामने वाले के दोषों को अनदेखा करने की भी शक्ति देता है। लेकिन अहंकार, न तो किसी के दोष को पचाने की शक्ति देता है और न किसी को दोष बताने देता है। अहंकारी दुखी होने को तैयार होता है पर अपने दोष का निवारण करने के लिए तैयार नहीं होता इसलिए सारी जिंदगी रोता ही रहता है। 

धर्म क्षेत्र में अहंकार की क्या सीमा हो? वस्तुतः अहंकार के विसर्जन के लिए तो हम धर्म करते हैं। जो धर्म हम अहंकार के विसर्जन के लिए करते हैं, उसी क्षेत्र में हम अहंकार की सीमा की बात करें तो मैं आपको बताता हूँ – धर्म क्षेत्र में मान की इच्छा मत रखो, अपमान न हो इतनी सावधानी रखो। धर्म क्षेत्र में अहंकार की यह सीमा आप रख सकते हो, इससे आगे नहीं।

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