समाधिमरण के मार्ग पर कैसे बढें?

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शंका

हम श्रावकों को समाधि मरण की ओर प्रशस्त होने के लिए क्या प्रयास करने चाहिए?

समाधान

आपने बहुत गम्भीर प्रश्न किया है। हो सकता है आप श्रोताओं के मध्य में ये बात आई हो कि यौवन अवस्था में समाधिकी बात करने का क्या तुक? प्रायः लोग ये सोचते हैं समाधिबुढ़ापे की साधना है और बूढ़े लोगों को ही समाधि करनी चाहिए।

देखिये, समाधि मरण का मतलब है सम्यक मरण और सही ढंग से वही मर सकता है जो सही ढंग से जीता है। जिनकी ढंग की जिंदगी होती है, वे ही ढंग की मौत पाते हैं। जिनकी जिंदगी बेढंगी, उनकी मौत भी बेढंगी होती है। इसलिए अन्तिम श्वांस ढंग से निकालना चाहते हैं तो हर व्यक्ति को प्रारम्भ से ही अपने समाधि मरण की साधना को लक्ष्य में रखकर चलना चाहिए। मृत्यु जीवन का एक अनिवार्य सत्य है। दुनिया में एक ही चीज ऐसी है जो एकदम निश्चित है और एकदम अनिश्चित है, वह है मृत्यु। मृत्यु होगी ये निश्चित है लेकिन कब होगी, ये एकदम अनिश्चित है। समाधि के पीछे की जो भावना है, उसे हमें समझना है। जब मौत हमारी निश्चित है, तो मृत्यु से घबराने की जगह मृत्यु के अनिवार्य और अपरिहार्य होने की स्थिति में सब प्रकार के विचार को त्याग कर समता पूर्वक देह त्यागने की जो प्रक्रिया है, उसका नाम समाधि मरण है। 

ये समाधिमरण बहुत दुर्लभ साधना है। एक बार समाधिमरण पूर्वक कोई देह त्याग करता है, तो दो-तीन भव में और बहुत ज़्यादा से ज़्यादा हुआ तो सात-आठ भव में मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। अभी समाधि की साधना बहुत दुर्लभ है, बड़े-बड़े योगियों को भी ये लाभ नहीं मिल पाता। इसके लिए आपको सतत जागरूक रहना पड़ेगा। हमारे ग्रंथों में कहा है कि मुनि हो या गृहस्थ, सबको अन्त अपना समाधि पूर्वक करने का भाव रखना चाहिए। ये कब कर सकते हैं? जब आप अपने जीवन के प्रति जागरूक हों और जीवन के प्रति जागरूकता के इस क्रम में आपको कुछ विशिष्ट साधनाएँ करनी जरूरी है। समाधिमरण को सल्लेखना भी बोलते हैं, जिसका मतलब है सम्यक-रीति से काय और कषायों को कृश करने का नाम सल्लेखना या समाधिमरण है। अपनी काया को क्रिश करना और अपनी कषायों को कृश करना, भली तरीके से आप अपने काया को और कषायों को कृश करें। 

समाधिमरण जो करना चाहते हैं, सबसे पहले बार-बार खाने पीने की आदत को बंद करें। प्रथम चरण में रात्रि में चारों प्रकार के आहार के त्याग का अभ्यास करें। दूसरे चरण में दिन में बार-बार खाने की आदत पर अंकुश लगाएँ। तीसरे चरण में दिन में दो ही बार भोजन करने का अभ्यास बनाएँ। चौथे चरण में एक बार भोजन और एक बार फल दूध लेने का अभ्यास बनाएँ। पाँचवें चरण में शाम का फल भी बंद कर दे केवल दूध पानी पर निर्भर रहने का अभ्यास करें। और छठवे चरण में दूध भी बंद कर दे केवल पानी के अभ्यासी बने। और सातवें चरण में मुनियों की तरह एक वक्त भोजन और पानी करने का अभ्यास कर ले। आपकी सल्लेखना बड़ी अच्छे तरीके से होगी। चरण बध्य तरीके से आप अगर अभ्यास करेंगें तो आपको सल्लेखना में कहीं कठिनाई नहीं होगी। ये तो शरीर की साधना है, इसके साथ अपनी शक्ति के अनुरूप उपवास भी करें। उम्र ढल जाने के बाद, जैसे-जैसे आपकी उम्र ढले, शरीर शिथिल हो साधना को प्रखर से प्रखरतर बनाने की कोशिश करें। 

ये बाह्य साधना है, अन्तरंग भी हमको कुछ तैयारी करनी होगी। धीरे-धीरे परिवार-परिजन से अपना ममत्व कम करें। व्यपार व्यवसाय से तो मुक्त होना जरुरी है ही। परिवार-परिजनों से भी ममत्व कम, किसी से वैर नहीं, किसी से विरोध नहीं, किसी से आसक्ति नहीं और किसी से विद्वेष की भावना नहीं। इसको दिनों-दिन कम करें और साथ ही आप अध्यात्म की साधना करें, आध्यात्मिक सूत्रों का अध्ययन करें, अपने आत्मा का निरन्तर अनुचिंतन करने का अभ्यास करें। और यदि ये आप अनुचिंतन करते हैं तो वो आपका आपकी आत्मा से केंद्रीकरण होगा। बेहतर होगा कि आप यदि अच्छी स्मरणशक्ती को लिए हुए हैं, तब आप कुछ अध्यात्म के पदों को और सूत्रों को याद कर लें। जो आपको काम में आएंगी आखिरी दिनों में, जब आप सुन भी नहीं सकेंगे, पढ़ भी नहीं सकेंगे लेकिन जो आपको याद रहेगा उन पदों को गुन गुना कर मन में स्मरण करके आप अपनी आत्मा से अपना केंद्रीकरण कर सकेंगे। ये एक प्रक्रिया है, धीरे-धीरे सबसे ममत्व कम करें। 

एक साधारण गृहस्थ है, जो ये चाहता है कि मेरा अन्त गुरु चरणों में णमोकार जपते हुए समाधि पूर्वक हो, मुझे अस्पताल में आहें भरते हुए न मरना पड़े। तो उसके लिए कुछ टिप्स में आपको दे रहा हूँ। पचास वर्ष की उम्र होते-होते आप अपने व्यापारिक विस्तार को कम करना शुरू करें, पारिवारिक विस्तार को कम करना शुरू करें। पचास के होते ही पाँच शून्य लगा दें। पाँच पर शून्य लगाने पर पचास होता है न, तो पचास को छूते ही पाँच चीजें शून्य करने का अभ्यास शुरू करें। सबसे पहले अहंकार शून्य, दूसरा अन्धकार शून्य, तीसरा अंगीकार शून्य, चौथा अलंकार शून्य और पाँचवा अधिकार शून्य। अहंकार- अपनी मालकियत की भावना धीरे-धीरे कम करना शुरू करें। अब आप परिवार में अपने आपको इस तरीके से एडजस्ट करें कि आप परिवार के मालिक न होकर, मार्गदर्शक बनो। अपने आप को मेहमान की तरह रखो। धीरे-धीरे बहू और बेटों पर परिवार और व्यापार का दायित्त्व सोपते जाओ, एक साथ मत सोपना, धीरे-धीरे सोपो। तो उससे अपने आप को कम करना शुरू करो। पचास से शुरू करो साठ, बासठ, पैंसठ होते-होते आप अपने आप को रिटायर कर दो। आजकल होता ये है कि लोग टायर्ड हो जाते हैं पर रिटायर होने का नाम नहीं लेते है। ये मामला गड़बड़ हो जाता है। यहाँ से आप अपना लक्ष्य बनाएँगे, टारगेट ले करके चलेंगे तो धीरे-धीरे-धीरे आपकी ये विमुखता होगी, अहंकार कम होगा, तो परिवार में क्लेश नहीं होगा। आप ये महसूस करना कि घर के बड़े-बुजुर्ग अपनी मालकियत जब थोपते हैं तो उनके बेटे-बहू के साथ आपस में तकरार होती है, इसको धीरे-धीरे कम करने का अभ्यास करना चाहिए। 

दूसरे नंबर पर अन्धकार, अब हमारा मोहान्धकार खत्म हो जाना चाहिए। अपने जीवन के विषय में एकदम स्पष्ट अवधारणा बन जानी चाहिए, मैं कौन हूँ, मेरा क्या है और मुझे क्या करना है, इसके प्रति जागरूकता और तत्परता को बरकरार रखें। तो आपका अन्धकार ख़त्म, अब आसक्ति फिर नहीं बढ़ेगी। 

नंबर तीन अंगीकार, अब अपने नाम पर कोई सम्पत्ति आदि को खरीदना बंद कर दें, अब उसका विस्तार मुझे नहीं करना है। लक्ष्य बनाए, पचास से साठ तक आप खरीदो जितना खरीदना है, बाकी बाल-बच्चे जाने। अब हम परिग्रह का विस्तार अपने साथ नहीं करेंगे। अलंकार, अब कोई तड़क-भड़क ज़्यादा नहीं करें, सिंपल रहने का अभ्यास करें। कोई अलंकार और उपाधि से अपने आपको न जोड़ें। 

और अंत में है अधिकार, अधिकार की भावना अपने जीवन में कम करें। अधिकार दूसरों को सौंपें। आप अधिकार सौंपोगे तो सम्मान पाओगे और अधिकार अपने पास रखोगे तो अपमानित होगे। 

एक बार मुझसे एक युवक ने पूछा। बोला, महाराज पहले माँ -बाप की इतनी उपेक्षा नहीं होती थी परिवार में, आजकल इतनी क्यों होने लगी? मैंने कहा, पहले बुजुर्ग होने से पूर्व ही वो वानप्रस्थी हो जाते थे, संन्यास ले लेते थे, दीक्षा ले लेते थे तो बच्चों को सत्ता मिल जाती थी। अब ८० साल की उम्र होने के बाद भी चाबी नहीं छूटती, सो दुर्गति भोगना पड़ती है। वो दुर्गति के पात्र बन जाते हैं। तो ये दुर्गति से अपने आप को कैसे बचाएँ, इसका अपना प्रयास और इसका अपना अभ्यास होना चाहिए कि किस तरीके से ये सारे के सारे कार्यक्रम बने। आप अपने आपको इधर से डायवर्ट करेंगे, आपके जीवन में सब कुछ होगा। 

महाराज, तो क्या सब कुछ सौंप दें?” अगर साधु बन गए तो सब छोड़ दो। गृहस्थ हो तो अपने पास इतना रख लेना कि कभी अपने बच्चों के आगे हाथ फैलाने की नौबत न आए। आज का युग ऐसा नहीं कि सब बच्चों को दें। हाथ में दाम रहेगा तो दम बनी रहेगी। नहीं तो मैंने अनेक लोगों को देखा है जो भावुकता में आ के अपनी सन्तान को सर्वस्व सौंपते हैं और उनको दो-दो, पाँच-पाँच हजार रुपये के लिए मोहताज होना पड़ा है। ऐसा काम कभी मत करना। इस तरीके से अपने आपको आप समेटने की कोशिश करें और साधना को प्रखर से प्रखरतर बनाए। निश्चित आप एक अच्छी समाधिसल्लेखना का सौभाग्य प्राप्त करेंगे। सार संक्षेप में इतना ही।

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