संसार में बिना मोह जगाए कैसे रहें?

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शंका

संसार में सम्यक् दृष्टि को ऐसे रहना चाहिए जैसे जल से भिन्न कमल! लेकिन संसार में रहकर बिना मोह किये कैसे रह सकते हैं?

समाधान

यदि आप सम्यक् दृष्टि होंगे तो रह सकते हैं। जिनको सम्यक् दृष्टि बनना है उनको ऐसे रहने का अभ्यास करना चाहिए। आप घर में कैसे रहते हैं और होटल में कैसे रूकते हैं? हो सकता है किसी व्यक्ति का घर साधारण है और वह किसी होटल या धर्मशाला में रूके, वहाँ स्टार फैसेलिटी हो। फिर भी होटल में रहने की मानसिकता या घर में रहने की मानसिकता क्या एक होती है? क्यों नहीं होती है? वो इसलिए नहीं होती कि घर को आप अपना घर मानकर रहते हो और होटल को किराये का कमरा मानकर रहते हो। किराये का घर, किराये का घर दिखता है उससे कोई लगाव या जुड़ाव नहीं होता और अपना घर, अपना घर दिखता है। उसमे कोई छोटा सा छेद भी होता है, तो जी दु:खता है। एक कील भी हिलती है, तो चित्त हिल जाता है। वो इसलिए क्योंकि वह अपना घर है। बस यही अन्तर होता है एक ज्ञानी में और एक अज्ञानी में। अज्ञानी घर को अपना घर मानकर चलता है और ज्ञानी उस घर को भी किराये का घर मानकर चलता है। वो पराया है इसलिए घर में रहता है लेकिन उस घर को अपने मन में बिठाकर नहीं रखता है। 

 ये बात अपने मन में अच्छे से स्थापित करके रखो कि संसार के जितने भी संयोग हैं ये मेरे नहीं हैं। ये कर्म की धरोहर है। कर्म ने मुझे दिये हैं। जब तक कर्म की अनुकूलता होगी ये सारे सम्बन्ध मेरे साथ जुड़े रहेंगे। जिस समय कर्म चाहेगा सब संयोग इधर से उधर कर देगा। पल में राजा को रंक और रंक को राजा बनते देर नहीं लगती है। पंडित को पागल और पागल को पंडित होते देर नहीं लगती है। मूर्ख का विद्वान और विद्वान को मूर्ख बनते देर नहीं लगती। करोड़पति को रोड़-पति और रोड़-पति को करोड़पति बनने में एक पल का भी विलम्ब नहीं होता। ये तो संसार है। कब क्या हो जाये पता नहीं? ये तो जीवन का चक्र है सम्यक् दृष्टि को इसकी पहचान होती है। इस बात का अच्छी तरह से ध्यान होता है कि मैं कौन हूँ और मेरा क्या है? जिस नाम और रूप से मुझे जाना जा रहा है वह मैं नहीं, मैं तो शुद्ध ज्ञाता, दृष्टा आत्मतत्व हूँ। मेरा केवल अपना आत्मतत्व है। मुझसे अतिरिक्त ये शरीर भी मेरा नहीं है, तो घर, सम्पत्ति, परिवार व परिजन फिर मेरे कैसे? नदी नाव के संयोग की तरह है नाव में लोग तभी तक सवार रहते हैं जब तक नदी में रहती हैं। नदी के तीर लगते ही लोग नाव छोड़कर निकल जाते हैं। ये सारा संसार एक मजमा है लोग अलग-अलग क्षेत्र से आकर रूके हुए हैं। जब तक है तब तक है घुलमिल कर रह लो। लेकिन ये बात मानकर चलो कि ये चार दिन का मेला है, एक दिन बिखर जाना है और सबको अपने-अपने ठिकाने जाना है। 

 ये सिद्धान्त जिस दिन बन जायेगा! उस दिन आप घर में मालिक की भाँति नहीं रहेंगे। मेहमान की भाँति रहना शुरू कर देंगे और जो मेहमान की भाँति रहना शुरू करता है, तो वह जल से भिन्न कमल की भाँति जीता है। ये सब मेरा नहीं है। शब्दों में भले कह न पाये लेकिन जीवन में वह जी लेता है। आसक्ति रहित जीवन ही आदर्श जीवन है और यहीं सम्यक् दृष्टि की पहचान है। कहा जाता है कि

“सम्यक् दृष्टि जीवणा, करे कुटुम्ब प्रतिपाल

अन्दर से न्यारा रहे, दाय खिलावे वाल”

 सम्यक् दृष्टि जीव कुटुम्ब का पालन तो करता है लेकिन वह जानता है कि अपना कर्तव्य तो मैं कर रहा हूँ लेकिन ये सब संयोग है। मेरा कोई नहीं। 

 एक धाय किसी बच्चे के ऊपर सारा मातृत्व उड़ेल देती है। कुछ देर तो ऐसा होता है कि उसके द्वारा पाले गये बच्चे को भी ये भ्रम हो जाता है कि शायद यही मेरी असली माँ है। पर धाय जानती है कि ‘नहीं! मैं अपना कर्तव्य कर रही हूँ मेरा बेटा तो कोई और है। ये मेरा बेटा नहीं।’ बस आँख खोल कर उस पन्ना धाय की कहानी को याद रखो, जिसने सब कुछ उड़ेल दिया अपने कर्तव्य के पालन के लिए लेकिन वह उसमें मुग्ध नहीं हो सकी। 

 एक ही दृष्टि रखो कि ये मेरा नहीं है। कर्म के संयोग से, पुण्य के संयोग से आज कुछ अनुकूलताएँ मुझे मिली हैं। इनका उपभोग न करके इनका उपयोग करूँ। उपभोग करूँगा तो पाप का बन्ध होगा और उपयोग करूँगा तो जीवन का उत्थान होगा। नये पुण्य का बन्ध होगा और मेरा जो लक्ष्य है उस लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक बनेगा। जब तक है तब तक इनका उपयोग करो इनमें रचो-पचो नहीं। इसी दृष्टि को विकसित करने की आवश्यकता है। जिस मनुष्य के जीवन में ऐसी दृष्टि विकसित हो जाती है उसका जीवन धन्य हो जाता है।

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