पन्थ के व्यामोह को कैसे छोड़ें?

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शंका

पन्थ के व्यामोह को कैसे छोड़ें?

समाधान

पंथ व्यामोह का सवाल बड़ा महत्वपूर्ण सवाल है। पंथ क्यों बनते है और व्यामोह कब होता है हमें उसकी जड़ में जाने की ज़रूरत है। जब मनुष्य पथ को भूल जाता है, तो पंथ और उसके आग्रह में पढ़कर पंथ व्यामोह का शिकार हो जाता है। यदि हम पथ को देखे तो पंथ, पंथाग्रह और पंथ व्यामोह की बात ही नहीं होगी। विडम्बना है कि आज लोग पंथ के व्यामोह में पथ को अनदेखा कर रहे हैं। हमारा पथ क्या है? भगवान ने हमें पथ दिया है पंथ नहीं! पंथ तो भगवान के अनुयाइयों ने बनाया है। भगवान का पथ अहिंसा और वीतरागता का पथ है उस पथ पर हम चलें। 

जहाँ तक भट्टारकों की बात है इनका जैन संस्कृति के उत्थान में बहुत बड़ा योगदान है। उस काल में जब जैन मुनियों का निर्बाध विचरण बाधित होने लगा तो वसंत कीर्ति द्वारा भट्टारक परंपरा का उद्भव हुआ। उन्होंने वस्त्र स्वीकार किया और अपने आपको मुनि की जगह ‘भट्टारक’ कहना शुरू किया और उद्देश्य रहा कि कम से कम अपने धर्मायतनों और साहित्यों का संरक्षण करेंगे। यह युग की आवश्यकता थी। लेकिन कालांतर में इसी भट्टारक परंपरा में अनेक विकृतियों ने जन्म ले लिया। प्रारंभ में भट्टारक साधु थे, जो आपात काल में संस्कृति की रक्षा के लिए वस्त्र को स्वीकार किए थे। कालांतर में ये भट्टारक जैन समाज के सामंतो जैसा साम्राज्य स्थापित करने लगे, उनकी साम्राज्यवादी मनोवृत्ति बन गई। वे अपने साथ जागीर और सम्प्रदाय जोड़ने लगे। उस भट्टारक अवस्था में उनकी निर्ग्रंथता और साधु वृत्ति का अभाव सा होने लगा। जिनका मूलभूत जैन परंपरा से कोई सम्बन्ध नहीं था और इससे ही प्रभावित होकर समाज में एक आंदोलन छिड़ा जिसे तेरह पंथ आंदोलन नाम दिया गया और समाज में दो पंथ का विभाजन हुआ, यह इतिहास की बात है। जिन्हे इस विषय में विशेष जानना है डॉ. विद्याधर जौहरपुर करके एक कृति है- “भट्टारक संप्रदाय” उसे अवश्य पढ़ना चाहिए। 

जहाँ तक भट्टारकों की बात है मैं मानता हूँ भट्टारकों की जैन संस्कृति को बहुत बड़ी देन है, जो विकृति आई वह उसका side-effect (खराब असर) था। भट्टारकों के विषय में मुझे गुरुदेव की एक बात याद आती है जब श्रवणबेलगोल के भट्टारक चारुकीर्ति १९८८ में गुरुदेव के दर्शनार्थ जबलपुर पधारे थे। अपने प्रवचन में एक बहुत अच्छी बात प्रतीकात्मक तरीके से महाभारत के सन्दर्भ को लेते हुए उन्होंने कहा कि “जब कीचक का वध करना था तो भीम को साड़ी पहननी पड़ी थी।” पर अब कीचक के वध के उपरांत भी भीम साड़ी में रहे तो यह शोभास्पद नहीं दिखता। वह समय की माँग थी जब दिगंबर साधू का विचरण निर्बाध नहीं होता था तब भट्टारक परंपरा की उपयोगिता समझ में आ गई। आज जब सभी तरफ दिगम्बरत्व की महिमा व्याप्त हो रही है, तो इस समय भीम को साड़ी उतारकर गदा घुमाने की आवश्यकता है। यह उनका प्रतीक था और दृष्टि आप सबको स्पष्ट है।

जहाँ तक तेरह पंथ, बीस पंथ आदि की बात है समाज को इन झगड़ों में नहीं पड़ना चाहिए। हमें अहिंसा और वीतरागता की पुष्टि करनी चाहिए। मैं हमेशा कहता हूँ पंथ को मत देखो पथ को देखो। तुम क्या कर रहे हो यह बाद की बात है, तुम क्यों कर रहे हो इसे पहले सामने रखकर चलो। यदि प्रयोजन सामने होगा तो कोई विकल्प आएगा ही नहीं। एक-दूसरे पर अपना पंथ मत थोपें, पंथ के नाम पर समाज बहुत बँट चुकी है अब इसे और बाँटना समाज में विष घोलना है। मैं तो कहता हूँ ऐसा कभी नहीं होना चाहिए।

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