आगम की अलग-अलग व्याख्या से भ्रमित युवा वर्ग कैसा संभले?

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शंका

आजकल बहुत से मुनि एवं आर्यिका जी अपने-अपने हिसाब से आगम की व्याख्या करते हैं, जिससे युवा वर्ग में भ्रम की स्थिति हो रही है, अतः मार्गदर्शन दें कि श्रावक क्वालिटी की तरफ ध्यान दें या क्वांटिटी की तरफ?

समाधान

आगम-आगम है। एक बार गुरुदेव ने अपने प्रवचन में कहा था कि ‘आपकी दुकान में माल आपका हो सकता है, मूल्य आप निर्धारित कर सकते हैं लेकिन माप-तोल के लिए जो बाट और तराजू हैं वो आपका नहीं हो सकता, वह पूरी तरह से सरकार के द्वारा प्रमाणित ही होता है।’ तो माप-तोल विभाग जिसको सर्टिफाइड करती है वही माप-तोल होता है। ऐसे ही सब कुछ तुम्हारी हो सकती है, व्याख्या तुम्हारी, विवेचना तुम्हारी, लेकिन आगम तो केवल भगवान के द्वारा जिसपर ट्रेडमार्क लगा हुआ है वो ही आगम है। इस आगम की मनमानी व्याख्या करना उचित नहीं। 

बीच के दिनों में कई बातें ऐसी मेरी कान में आई, मुझसे लोगों ने कहा भी कि महाराज आप इस विषय में बोलिये। इन दिनों पन्थवाद को बहुत तेजी से हवा दी जा रही है। एक धार्मिक आयोजन को निमित्त बना करके जिस तरह से पन्थवाद को हवा देकर समाज में भ्रम की स्थिति निर्मित की जा रही है, ये समाज की सेहत के लिए ठीक नहीं। मैं चाहूँ तो मैं भी बोल सकता हूँ लेकिन मैं समाज को कभी पन्थ में उलझाना नहीं चाहता। मेरा तो हमारे समाज के सभी साधु-सन्तों और व्याख्याकारों और विवेचको से कहना है कि हम पन्थ की बात न करें, पथ की बात करें। हमारा धर्म केवल पूजा-पाठ और क्रिया-कांडों में नहीं है, हमारा मूल धर्म तो तत्वज्ञान में है। हम लोगों के सम्यक्त्व के मार्ग की बात क्यों नहीं करते? इन क्रिया-कांडों में उलझने और उलझाने की बातें क्यों करते हैं? इस विषय में समाज में बहुत पहले से इस बात का निर्धारण हो चुका है कि पूजा प्रक्रिया को ले करके समाज में खींचातानी न की जाए, जहाँ जो परम्परा चल रही है, वही परम्परा चलने दी जाए। लेकिन ‘मेरी परम्परा सही, तुम्हारी परम्परा गलत’ कहने की जो प्रवृत्तियाँ समाज में जो चल पड़ीं और जिसे अब बहुत योजनाबद्ध तरीके से प्रचारित किया जा रहा है, ये कतई प्रशंसनीय नहीं है। 

मैं आप सबसे कहना चाहूँगा कि इन बातों पर कभी भ्रमित न हों। हम पूजा-पाठ करें, हमारा धर्म का मूल तत्त्व है- अहिंसा और वीतरागता। बस अहिंसा जहाँ है वहाँ धर्म है, वीतरागता जहाँ है वहाँ धर्म है। तुम्हारे लिए और कोई समझ हो या न हो बस इतनी समझ होनी चाहिए कि अहिंसा की पुष्टि हो रही है या नहीं, वीतरागता मेरे जीवन में प्रकट हो रही है या नहीं। यदि ये हो रही है, तो इसे धर्म के रूप में स्वीकार करो और जिसमें हिंसा है और जिसमें राग का पोषण है उसके लिये कोई कितनी भी दुहाई दे उसे धर्म मत मानना। वो तुम्हें संसार में डुबाने वाला है, संसार से तारने वाला नहीं। इसलिए कोई भी, कहीं भी, कैसी भी बात करे आप उनसे कहो “तुम्हारी सब बातें मुझे मंजूर, हम आपसे तर्क-वितर्क नहीं करना चाहेंगे लेकिन आपसे केवल इतना ही निवेदन करते हैं कि हम जो धर्म की क्रिया आज तक करते आ रहे हैं, हमें करने दीजिये। आप आशीर्वाद दें ताकि हम धर्म के मूल तत्त्व को पकड़ें।” ये तो ऊपर के छिलके हैं, असली धर्म तो हमारे परिणामों की शुद्धि करने वाला सम्यक् दर्शन है। सम्यक् दर्शन के बिना किया गया धर्माचार धर्म ही नहीं है। इसलिए गूदे को खाओ छिलके में मत उलझो। ये बहुत-बहुत गलत परिपाटी समाज में चली है और इसे हतोत्साहित किया जाना चाहिए और ऐसे लोगों को कहना चाहिए कि समाज के सेहत को ठीक रखें, जहर फैलाने का काम न करें।

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