आजकल लोग जैन धर्म छोड़कर वैष्णव धर्म को अधिक महत्व दे रहे हैं जबकि उन्हें पता है कि जीवन का अंतिम लक्ष्य मोक्ष होता है और वो सरागी देवों को पूजते हैं और उनके सामने णमोकार मंत्र बोलते हैं। क्या यह उचित है और हमें इसे कैसे रोकना चाहिए?
सबसे पहली बात तो ये है कि किसको पूजना है और क्यों पूजना है, ये सामने रखो। पूज्य-अपूज्य का विवेक जिस मनुष्य के मन में होगा उसके सामने ये समस्या नही आएगी और उस समय स्थिति तो और बड़ी दुविधा होती है कि किसी को तुम पूज भी रहे हो और नहीं भी पूज रहे हो। रागी देवता की तुम उपासना कर रहे हो और णमोकार जप रहे हो तो उपासना क्यों कर रहे हो? उनकी पूजा करना है तो उनके गुण गाओ। आप मेरे सामने दूसरे के गुण गाओगे तो मैं प्रसन्न होऊंगा या नाराज? और झमेले में पड़ जाएंगे। इसलिए वीतराग को ही पूजोगे तभी जीवन धन्य होगा।
इसका एक ही उपाय है कि हम सन्मार्ग का ठीक ढंग से उपदेश दे, लोगों को समझाए ताकि उन्हें अपने जीवन का वास्तविक बोध हो सके, पूज्य-अपूज्य का विवेक जग सके, सम्यक्त्व और मिथ्यात्व को वो पहचान सके और अपने जीवन का समाधान प्राप्त कर सकें।
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