गृहस्थ जीवन से आत्म कल्याण का मार्ग कैसे प्रशस्त करें?

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शंका

परिवार के प्रति कर्त्तव्य का पालन करते हुए हम अभी से किस प्रकार का अभ्यास करें जिससे जवाबदेही समाप्त होने के बाद आत्म कल्याण की ओर अग्रसर हो सकें?

समाधान

अपने पारिवारिक जिम्मेदारियों को पूरा करने के बाद आत्म कल्याण की तरफ प्रवृत्त होना चाहिए। लेकिन ऐसा एकाएक नहीं होता, उसके लिए प्रारम्भिक तैयारी आवश्यक है। आप अगर गृहस्थी में पाँव रखे हैं, तो मैं तो उन सब व्यक्तियों से कहना चाहता हूँ जो आज गृहस्थी में प्रवेश कर चुके हैं, वे गृहस्थी का निर्वाह करें पर गृहस्थी में उलझें नहीं। एक समय सीमा के साथ अपने जीवन की धारा को बदलने का प्रयास करें और उसका रास्ता ये है कि आपने अगर २५ वर्ष की अवस्था में वैवाहिक जीवन को स्वीकार किया तो तय कीजिए कब तक मैं सक्रिय गृहस्थी में रहूँगा? २५ साल तक आपकी सक्रिय गृहस्थी रहे, ५० साल की उम्र तक आप सक्रिय गृहस्थी में रहे कोई दिक्कत नहीं। इस बीच यत्किंचित् धार्मिक क्रियाओं को करें और अधर्म से अपने आप को बचायें। ५० साल की उम्र पार करते ही आप धीरे-धीरे अपनी गृहस्थी से अपने आपको विमुख कीजिए, घर-परिवार और व्यापार के दायित्त्वों को धीरे-धीरे कम कीजिए और अपनी सन्तान की जिम्मेदारियों को बढ़ाइए और धीरे-धीरे, धीरे धीरे ६० साल की उम्र पहुँचते-पहुँचते जब ऐसा लगने लगे कि मेरे बच्चे मेरे कारोबार को ठीक ढंग से सम्भाल रहे हैं या मेरी बहू घर को ठीक तरीके से संभालने में दक्ष हो गई है, तो ये जिम्मेदारियाँ धीरे-धीरे उन्हें देना शुरू कीजिए और खुद मार्गदर्शक बन करके जीयें, मार्ग निर्णायक मत बनिए। 

घर में मालिक की भाँति जीने की जगह मेहमान की भाँति जीना शुरु कर दीजिए। लेकिन ये बात मैं आप सबसे कहना चाहता हूँ, जो व्यक्ति आध्यात्मिक उन्नति करना चाहता है वो अपने आपको मालिक की जगह मेहमान माने पर उनके बच्चे अपने माँ-बाप को मेहमान की तरह न देखें, उनके लिए तो वो मालिक ही होना चाहिए नहीं तो उल्टा हो जाता है, ये तो थोड़े दिन के मेहमान हैं और महाराज ने भी कहा था कि मेहमान की तरह रहो। मालकीयत छोड़िये, मेहमान की तरह रहिए और बच्चों को फ्रीडम दीजिए, देखिए वो क्या कर रहे हैं, हर बात पर टोका-टाकी करने की आदत से बाज आइए। १० गलतियाँ होने पर एक बार टोकिये, एक गलती होने पर १० बार टोकने की आदत बिल्कुल बंद कर दीजिए। अपनी तरफ से चला करके कोई सलाह मत दीजिए और जब कभी वो सलाह माँगने आए, उचित सलाह दीजिए और दोबारा सलाह तभी दीजिए जब आपकी पुरानी सलाह को वो स्वीकार करता हो। आप ये चीज नोटिस में लीजिए कि आपका बच्चा आपकी सलाह को कितना मान रहा है। यदि मान रहा है, तो समझिए आप आपके बच्चे के लिए स्वीकार्य हैं और यदि नहीं मान रहा है, तो समझिए आप अपने बेटे को सलाह देकर अपनी तौहीन ही करा रहे हैं, आपकी और इज्जत घटेगी। अभी तो कुछ जवाब नहीं दिया, आने वाले दिनों में जवाब भी दे सकता है। इसलिए सलाह तभी तक दीजिये जब तक सामने वाला सलाह को स्वीकार करे। आजकल अक्सर होता ये है कि आप लोग सलाह देते हैं और आपकी सलाह आपके बच्चों को अच्छी नहीं लगती फिर भी आप सलाह देते हैं। मैं उसका बाप हूँ, मैं सलाह नहीं दूँगा तो कौन देगा – उस सलाह के चक्कर में रोज झगड़े होने शुरू हो जाते हैं क्योंकि आज की पीढ़ी अपने हिसाब से जीना चाहती है और आप अपने हिसाब से। 

मैं तो एक बात और कहना चाहता हूँ बड़े प्रैक्टिकल रूप में कि आप अपने परिवार में बच्चों के साथ ज़्यादा टोका-टाकी मत करें, जितना आवश्यक है उतना सलाह दें। सलाह अगर वो सामने वाला माने तो दुबारा सलाह दें और यदि आपकी सलाह को कोई बार-बार न मानता है, तो वहाँ आप अपनी उपेक्षा न करायें। यदि ऐसा करेंगे तो आपका जीवन बहुत सुखी, सयंत और प्रसन्न होगा।

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