मन में यह विकल्प आया कि सांसारिक मार्ग में भी पुण्य चाहिए, क्योंकि निरोगी काया मिलेगी तो वह पुण्य से, धन दौलत है वह पुण्य से! यदि वहाँ से हटकर ऊपर मोक्ष मार्ग की ओर निकलते हैं, तो वहाँ पर भी पुण्य चाहिए! यदि आचार्य श्री जैसी पुण्यात्माओं को आहार देना है, आपको आहार देना है, तो भी वहाँ पुण्य की आवश्यकता है। वहाँ से निकले, आचार्य श्री से दीक्षा की भावना भायें तो अचार्य श्री कहते हैं “पुण्य गहरा करो! ” और फिर शास्त्रों में आप पढ़ते हैं कि अरहंत परमेष्ठी का पद भी पुण्य के प्रभाव से मिलता है। तो इतना पुण्य कैसे एकत्र किया जा सकता है?
आपने प्रश्न को जिस जगह लाकर के मोड़ा बहुत सराहनीय है, मैं तो सोच रहा था आप यही पूछेंगी की फिर “पुण्य को हेय क्यों कहा जाता है?” लेकिन आपने पुण्य की उपादेयता को अच्छी तरह से समझने के लिए और उसे उपादेय सिद्ध करने की कोशिश में, यह और पूछ डाला है- “अच्छा पुण्य कैसे कमाएं?” ४ माध्यम से पुण्य कमाया जाता है, आचार्य जिनसेन ने महापुराण में लिखा-“जिनेंद्र भगवान की पूजा से पहला पुण्य, सत्पात्र को दान देने से दूसरा पुण्य, व्रतों का पालन करने से तीसरा पुण्य और उपवास करने से चौथा पुण्य!‘ चारों माध्यम से पुण्य प्राप्त होता है, इसलिए जितना बन सके अपनी शक्ति के अनुसार चारों में जुट जाओ, पुण्य ही पुण्य प्रकट होगा और जीवन धन्य होगा।
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