दिनचर्या में व्यापार, परिवार और धर्म को कितना समय दें?

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शंका

एक गृहस्थ को अपनी आजीविका के लिए व्यापार करना पड़ता है, तो उसे कितने घंटे व्यापार में देना चाहिए, कितने घंटे परिवार में देना चाहिए और कितने घंटे धार्मिक कार्यों में लगाना चाहिए? यदि किसी कारण वश व्यापार में ज़्यादा समय देते हैं, तो क्या उनको दोष लगता है?

समाधान

गृहस्थों के लिए तीन पुरुषार्थ का उपदेश है- धर्म, अर्थ और काम। ऐसा कहा गया कि तीनों पुरुषार्थों में सम्यक सन्तुलन बनाकर के जियें। अब सन्तुलन बनाकर जियें, तो कैसे जियें? चौबीस घंटे में इन तीन पुरुषार्थो को बांटते हैं तो तीनों में ८-८ घंटे का पुरुषार्थ आता है। ८ घंटा धर्म करो, ८ घंटे व्यापार करो और ८ घंटे मौज-मस्ती, घर-परिवार की व्यवस्था करो। ऐसा कर लो तो तुम्हारे जीवन में ठाठ है। जो इन तीनों को ८-८ के अन्तर में बाँट देगा, तो वो ८ के चक्कर से जल्दी मुक्त हो जायेगा, और आठवीं भूमि में जाने का रास्ता प्रशस्त हो जायेगा। 

सबसे उत्तम तो ये है कि २४ घंटे में ८ घंटे से ज़्यादा व्यापार मत करो। आठ घंटा घर-परिवार, मौज-शौक के लिए दो, आठ घंटा धर्म ध्यान के लिए दो। चलो कदाचित ये नहीं कर सकते तो मैं एक संशोधन इतना करना चाहता हूँ कि व्यापार आठ घंटे से ज़्यादा मत करो। एक मजदूर भी आठ घंटे से ज़्यादा मेहनत नहीं करता। तुम लोगों की हालत तो मजदूरों से भी गई बीती है। सुबह से सोने तक बस एक ही काम व्यापार, व्यापार, व्यापार………। आखिर करोगे क्या? पैसे की तुम्हारे जीवन में कितनी आवश्यकता है? आठ घंटा कमा कर के व्यक्ति आनन्द से जी सकता है। आप उससे ज़्यादा यदि करते हो, तो अपने ऊपर अतिभार रोपण करते हैं और ये व्यापार- व्यवसाय के प्रति उत्पन्न प्रगाढ़ आसक्ति की अभिव्यक्ति मानी जाती है। आसक्ति मंद होनी चाहिए। इसलिए आठ घंटा तुम्हारी सेहत के लिए, १-२ घंटे अपने परिवार के लिए और कुछ नहीं तो कम से कम एक घंटा तो भजन-पूजन में दो। आज कल लोगों का हाल ये है कि उसको खुद के लिए ही समय नहीं है, बड़ा बुरा हाल है। सब व्यस्त, सब व्यस्त, सब व्यस्त…….। 

एक आदमी व्यापारी था और बहुत व्यस्त रहता था। जब व्यस्त रहता था, तो हमेशा उसकी पत्नी उससे परेशान रहती थी। उसके आने जाने का कोई समय नहीं रहता था। जब चाहे आये और जब चाहे जाये, बड़ा बुरा हाल था। एक दिन रात के १२ बजे आया। पत्नी चिल्लाई, ये कोई आने का समय है १२ बज गए हैं? उसने कहा कि जल्दी खाना परोस मैं बहुत व्यस्त हूँ, मुझे मरने की भी फुर्सत नहीं है। पत्नी भी रोज-रोज का सुनकर के झल्ला उठी। उसने कहा-‘मरना है, तो थोड़ी देर से मरना मैं भी अभी बहुत व्यस्त (BUSY) हूँ, मुझे रोने की भी फुर्सत नहीं है।’ इतनी बुरी हालत है, इनके लिए क्या कहना? तो ऐसी व्यस्तता उचित नहीं है। 

“बहवारम्भ परिग्रहत्वं-नारकस्यायुषः”, ये ऐसे लोगों के लिए ही कहा गया है। धन को जीवन के निर्वाह का साधन मानना चाहिए। उसे कभी साध्य नहीं बनने देना चाहिए। और एक बात को सदैव स्मरण में रखना चाहिए कि जीवन के लिए जीविका है। जीविका के लिए जीवन नहीं है। जीवन और जीविका की भेद रेखा को हम जब तक नहीं समझ लेते हैं, तब तक जीवन का कल्याण नहीं हो सकता है।

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