परिवार में सहनशीलता कब तक रखें?

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शंका

परिवारों में कलह न हो तो उसके लिए हमें सहनशील होना पड़ेगा, लेकिन गुरुदेव! सहनशीलता कब तक होना चाहिए? क्या अपने आत्म-सम्मान को अपमान में बदलना सही है? कई बार हम ऐसी स्थिति से गुजरते हैं जहाँ लोग हमारी सहनशक्ति को गलत समझ कर बोलते हैं कि “यह तो ऐसे ही हैं, इनको कुछ भी बोलो, कुछ भी करवा लो तो” वहाँ ऐसी सहनशक्ति पर विराम लगाना उचित है या अनुचित?

श्वेता जैन, सतना, मध्यप्रदेश

समाधान

आत्म-सम्मान है क्या? यह कहीं न कही हमारा अहंकार तो नहीं है? जिसे लोग स्वाभिमान कहते हैं मुझे उसमें भी ‌प्रायः अभिमान की गन्ध दिखती है। “सामने वाला व्यक्ति हमसे पूछ नहीं रहा, हमारे लिए कोई वैल्यू नहीं दे रहा, हमें महत्त्व नहीं दे रहा”, इसी को आप अपना अपमान मान लेते हैं। अरे! कोई हमें महत्त्व दे या न दे, यह सोचें “मेरा महत्त्व तो तुम्हारे महत्त्व देने से थोड़े ही न बढ़ेगा। मैं जो हूँ सो हूँ। मेरी गरिमा को मुझे बचा कर रखना है, मुझे उसका प्रमाण पत्र नहीं देना।” दुनिया मुझे पूछे तभी मैं साधु हूँ, यह बात ठीक नहीं है। मैं साधु हूँ इसलिए साधु हूँ। “लोग मुझे मान दें तब मेरी प्रतिष्ठा है”, यह बात गलत है। 

मैं अच्छा काम करूँ, यह मेरे हाथ में है। यह मेरी निष्ठा है मुझे प्रतिष्ठा की परवाह नहीं”– यह बात होनी चाहिए। मन से ये चीज निकल जाए तो फिर कभी लगेगा ही नहीं कि आपको अपमानित किया जा रहा है। जब आप अपने आप को अपमानित महसूस नहीं करोगे तो सहन करने की बात भी नहीं होगी। वस्तुत: सहन करने की बात तब आती है जब हमारी सोच नकारात्मक बन जाती है और हम समुचित मान न मिलने को ही कोई अपना अपमान मान लेते हैं। हम अपेक्षा के अनुरूप मान नहीं पाते तो उसे ही अपना अपमान मान लेते हैं, यह प्रवृत्ति दूर होनी चाहिए और अन्तिम क्षण तक सहन करना चाहिए।

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