उपशम, क्षयोपशम, क्षायिक सम्यक्त्व कैसे प्राप्त होता है?

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शंका

उपशमसम्यक्, क्षयोपशमसम्यक्, क्षायिक सम्यक् प्राप्त करने के लिए सम्यक् दृष्टि-मित्थात्व दृष्टि जीव ऐसी कौन सी क्रियाएँ करता है जिनसे उनकी विशुद्धि इतनी बढ़ जाती है कि वे उक्त सम्यकत्व को प्राप्त कर लेते हैं?

समाधान

जो सम्यक् दर्शन होता है उसमें उपशम सम्यक् तो मिथ्यादृष्टि को होता है। क्षयोपशम सम्यक् दृष्टि भी मिथ्यादृष्टि प्राप्त कर लेता है। लेकिन क्षायिक सम्यक् दृष्टि, क्षयोपशम सम्यक् दृष्टि प्राप्त करता है। और कृत-कृत वेदक सम्यक्, क्षयोपशम सम्यक् दृष्टि को ही होता है। ये उपशम सम्यक् दर्शन की प्राप्ति उसी जीव को होती है, जिसके अन्दर प्रति समय अनन्त गुणी विशुद्धि होती है। और वह मिथ्या दृष्टि होता है और मिथ्यात्व अवस्था में आत्मा के प्रति श्रद्धा जागती है। बाहर से देव, शास्त्र व गुरू आदि का निमित्त उसे मिलता है। जाति स्मरण, धर्म श्रवण आदि जिन बिम्ब दर्शन आदि का निमित्त पाकर जब उसका परिणाम, उसका चित्त आत्मानुमुखी होता है। शरीर और आत्मा का भेद विज्ञान का अनुभव करके वो गहरी विशुद्धि में डूबता है। तब उसे कारणलब्धि की प्राप्ति होती है और उस कारणलब्धि की अवस्था में वह अंतर्मुख होकर अपने अन्तरंग में ऐसी विशुद्धि लाता है, ऐसी परिणति लाता है जिसमें विशुद्धि के बल पर उसके कर्णपटल शान्त होने लगते हैं और सब सम्यक् विरोधी कर्मों का शमन करके वो उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। ये उपशम सम्यक् पहले गुणस्थान में मिथ्या दृष्टि को मिथ्यात्व अवस्था में इसकी प्राप्ति की प्रक्रिया होती है। और प्राप्त करते ही चतुर्थ-गुणास्थान भी हो सकता है, पंचम भी हो सकता है और प्राप्ति की प्रक्रिया में सप्तम भी हो सकता है। बाद में छटा होता है। 

इसी प्रकार क्षायिक सम्यक् दर्शन चौथे से लेकर सातवें गुणस्थानवर्ती मुनिराज हो या गृहस्थ हो, सबको होता है। क्षयोपशम सम्यक् दर्शन भी मिथ्या दृष्टि को होता है और सप्तम गुणस्थान तक रहता है। इसी तरह से नीचे भूमिका में सराग भी होता है और ऊपर की भूमिका में वीतराग होता है।

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