दूसरों के कल्याण में निमित्त बनने वाले को भी उसके पुण्य का कुछ न कुछ अर्जन होता है। भगवान तो लाखों करोड़ों प्राणियों के कल्याण के निमित्त हैं। तो क्या उनको कर्म बन्ध नहीं होता? कर्म सिद्धान्त ये कहता है कि कर्ता, कारक और कारण तीनों को बन्ध होता है। फिर सिद्ध भगवान कर्म रहित कैसे हुए?
ये बात बिल्कुल सही है। कर्म बंध किसे होता है, ये समझो। जो राग से सहित होता है उनको बन्ध होता है, और जो राग रहित होता है, उनको बन्ध नहीं होता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में एक बहुत अच्छा उदाहरण दिया कि एक व्यक्ति अपने शरीर में तेल लगाकर मिट्टी के अखाड़े में उछल कूद कर रहा है, तो उसके पूरे शरीर में मिट्टी चिपक जायेगी, और दूसरा व्यक्ति बिना लेप के उस अखाड़े में उतर रहा है, तो उसको मिट्टी नहीं चिपकेगी। मिट्टी हाथ-पाँव चलाने के कारण नहीं चिपकती है, तेल के कारण चिपकती है। मिट्टी चिपकने का मूल कारण तेल होता है। इसी प्रकार क्रिया से बन्ध नहीं होता है। हमारे भीतर के राग से बन्ध होता है। जब हम राग पूर्वक कोई भी अच्छा-बुरा कर्म करते हैं, कराते हैं, अनुमोदना करते हैं, तो उसमें हमारा बन्ध होता है। लेकिन जो वीतराग होते हैं वो कुछ भी करें उनके लिए कुछ नहीं होता है। दर्पण की तरह उनका जीवन होता है। दर्पण में कितनी भी धूल फेकों। वो धूल चिपकती नहीं है। भगवान दर्पण की भाँति हैं इसलिए उनको रंचमात्र भी कर्म नहीं बँधता।
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