व्यक्ति के निरंकुश मनोभावों पर न्यायालय कैसे दंड देता है?

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शंका

हम इंसानों के मनोभावों पर किसी का वश नहीं चलता। तो कोई भी संस्था, जैसे न्यायालय आदि उन पर कैसे निर्णय ले लेती है?

समाधान

न्यायालय के पास मनोभाव की तो कोई व्यवस्था नहीं है। आईपीसी (IPC) के जितने भी नियम हैं मनोभावों के आधार पर नहीं हैं, उसकी क्रिया के आधार पर हैं। यह बात अलग है कि भारतीय दंड विधान की व्यवस्था में व्यक्ति के जीवन में कोई घटना घटने के बाद यह देखा जाता है कि उसका इरादा क्या था? अब उस समय उसका इरादा जो भी हो पर अदालत में जो प्रकट किया जाता है और अदालत उसे जिस रूप में समझता है उसे उसी अनुरूप निर्णय देता है। 

इतना ही कहता हूँ कि धर्म और कानून में बुनियादी अन्तर है। कानून केवल अपराध की सजा देता है और धर्म हमें पाप की भी सजा देता है। धर्म के दरबार में पाप पर भी विचार होता है और कानून के दरबार में केवल अपराध पर, वह भी तब जब अपराध सिद्ध हो जाये। कानून की कुछ ऐसी सीमायें हैं जिसमें कई बार ऐसा भी देखने को आता है कि निरअपराधी फंस जाते हैं और अपराधी मुक्त हो जाते हैं क्योंकि उस कानून की अपनी मर्यादा है। लेकिन धर्म का कानून, बड़ा कानून है, यहाँ जो करता है वही भरता है और जितना करता है उतना ही भरता है।

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