अंगों के प्रत्यारोपण से आत्मप्रदेश पर क्या प्रभाव पड़ता है?

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शंका

हम अपनी एक किडनी निकाल दें तो आत्म प्रदेश क्या होता है? और नई किडनी लगा लें तो क्या होता है?

समाधान

हमारे आगम के अनुसार हमारी आत्मा के प्रदेश हमारे तक सीमित रहते हैं। यदि कोई भी organ (अवयव) को ट्रांसप्लांट करते हैं तो उस समय हमने ऑर्गन को निकाल कर अलग कर दिया। ऑर्गन को अलग किया तो निश्चित रूप से हमारे आत्म प्रदेश संकुचित हो गये। जब नये ऑर्गन को हमने वहाँ प्लांट किया तो उसमें जब तक हमारे आत्म प्रदेश सक्रिय नहीं होंगे तब तक वे ऑर्गन्स काम नहीं करेंगे। ब्लड सर्क्युलेशन तो ऐसा है। इसमें जैन सिद्धान्त क्या कहता है? जब मेरे पास प्रश्न आया तो एक क्षण को मैं विचार में पड़ा। ये प्रश्न एक डॉ. ने पूछा था जो मेरठ के थे। तो तुरन्त मेरे दिमाग में एक बात आयी जिसे आज मैं दोबारा कह रहा हूँ कि ऐसा हो सकता है और जैन आगम इसके लिए समर्थन देता है।

हमने ये पढ़ा है कि केवलज्ञान के उपरान्त केवल ज्ञानी का शरीर सर्वांग होता है। यानि यदि किसी मुनिराज पर उपसर्ग हो और उपसर्गारिष्ट अवस्था में किसी ने उनके हाथ को हटाकर अलग कर दिया हो या पाँव को काटकर अलग कर दिया हो और उसके बाद उन्हें केवल ज्ञान हो तो उनका हाथ व पाँव जुड़ जाता है। केवलज्ञानी लूले-लंगडे़ नहीं होते हैं। तो ये कैसे जुड़ा? कहीं न कहीं उनके आत्म प्रदेश का उनसे सम्बन्ध जुड़ा तब हुआ। तो ये ऑरगन्स (अवयव) आत्म प्रदेश से जुड़ जाते हैं। यद्यपि हमारे आगम में इसकी इतनी सूक्ष्म विवेचना देखने को नहीं मिलती। लेकिन एक बात समझ में आती है कि इनको हम इस तरीके से कह सकते हैं। 

दूसरी बात हमारा ये शरीर “नामकर्म” के उदय से बनता है। हमारे ये जो अंग, उपांग बनते हैं, ये “अंगोपांग” नाम कर्म से बनते हैं। शरीर नाम कर्म और “अंगोपांग” नाम कर्म, ये भव प्रत्यय हैं। दो प्रत्यय होते हैं-एक भव प्रत्यय, दूसरे परिणाम प्रत्यय। भव प्रत्यय वे होते हैं जो जन्म से लेकर मरण तक उदय में रहे; और परिणाम प्रत्यय वे होते हैं जो बदलते रहें-जैसे यशःकीर्ति, अयशःकीर्ति, सुभग, दुर्भग, अनादेय, आदेय, ये परिणाम प्रत्यय हैं। ये बदलते रहते हैं। हमारा शरीर नाम कर्म है, अंगोपांग नाम कर्म है और हमारा गति नाम कर्म है ये सब बदलते नहीं है। 

कर्म अपना फल द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव के अनुसार देते हैं। जो मैंने इस पर सोचा मैं आपको बता रहा हूँ। तो किसी ऑर्गन को निकाला वह स्थान खत्म हुआ और हमारे प्रदेश संकुचित हो गये उस क्षेत्र में हमारे आत्म प्रदेश नहीं रहेंगे। लेकिन वहाँ किसी दूसरे से लेकर किसी दूसरे ऑर्गेन को इनप्लांट करेंगे तो वापस उनको अनुकूल द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव हो जायेगा, तो आत्म प्रदेश फैलने में कई बाधा नहीं होनी चाहिए क्योंकि नाम कर्म तो अभी वही है, तो उसने फैला दिया। इसलिए ये बात कहीं से गलत साबित नहीं होती है। जैन धर्म के अनुसार इसकी मान्यता पूरी तरह ठीक है और इसके मानने में कोई बुराई नहीं है। यद्यपि इस पर और रिसर्च होने की आवश्यकता और अपेक्षा है।

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