महाराज जी इतनी व्यस्तताओं के साथ अपना धर्म ध्यान कैसे करते हैं?

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शंका

महाराज जी! आप तो दिगम्बर मुनिराज हैं और आप इतना बड़ा प्रोजेक्ट चला रहे है। कितना आरम्भ है और कितना परिग्रह-धन संचय! उसकी चिन्ता व आकुलता! आप किस प्रकार अपनी आत्मा को इन सबसे दूर करके अपनी धर्म साधना कर पाओगे?

समाधान

यहाँ इतना बड़ा कार्यक्रम चल रहा है। इतना बड़ा प्रोजेक्ट! महाराज जी! आप इन प्रोजेक्ट की क्रियायों में लोगों को मार्गदर्शन देते हैं तो अपना ध्यान कब करते हैं? 

बन्धुओं! आप को लगता है कि ये प्रोजेक्ट मेरे द्वारा संचालित किया जा रहा है। मैं इसमें कहीं नहीं हूँ मेरी भूमिका केवल आशीर्वाद और मार्गदर्शन की है। रहा सवाल इसमें रचने-पचने का- मैं मानता हूँ कि साधु अगर अपने भीतर से जाग्रत है, तो सब में रहते हुए भी स्वयं में रहने का सामर्थ्य रख सकता है। मैं कभी इन बातों को अपने ऊपर हावी नहीं होने देता। जितनी देर और जितनी आवश्यकता है उतनी देर उसकी चर्चा होती है। उसके बाद जैसे ही अपने में आया तो इन सब पर ब्रेक लग जाता है, आपको अनुभव होगा। मेरी मानसिक स्थिति का अंदाजा आप इस तरीके से लगा सकते हैं कि जब लोग मुझसे प्रश्न पूछते हैं तो पहले और दूसरे प्रश्न में एकदम परस्पर विरोधी धारा होती है लेकिन आपने कभी मेरे मन के सन्तुलन को बिगड़ते हुए देखा? रोज प्रश्न आते हैं, सामने वाला क्या प्रश्न करेगा मुझे मालूम नहीं। पहले और दूसरे प्रश्न से कोई तारतम्य नहीं है, लेकिन फिर भी मैं बिना विचलन के आपको जवाब देता हूँ। मुझसे कई लोगों ने पूछा कि ‘महाराज जी आप कैसे करते हैं?’ हमने कहा कि “हर व्यक्ति की अपनी-अपनी एक प्रतिभा होती है और साधक की एक क्षमता होती है, अपने मन को कन्ट्रोल करने की। मैं इसको MENTAL FILING बोलता हूँ। आपके कम्प्यूटर में ढेर सारी फाइलें होती है, जिस समय आप जो फाइल को खोलना चाहो वही फाइल खुलती है। एक बार जिस फाइल को CLOSE कर दें तो दोबारा वो फाइल खुलती है क्या? जब तक आप नहीं चाहेंगे तब तक फाइल नहीं खुलेगी। मैं आपसे इतना ही कहता हूँ कि जब तक जरूरत होती है, मैं फाइल खोलता हूँ और फाइल बंद करते ही CHAPTER CLOSE हो जाता है। फिर दूसरी फाइल खुल जाती है। 

अगर लोग ये सोचते हैं कि ये साधु का काम नहीं है, तो ये उनका अपना दुराग्रह है और अज्ञान है। आप सबको इतिहास की उस घटना को कभी नहीं भूलना चाहिए कि जब सिद्धान्त चक्रवर्ती आचार्य नेमीचंद्र महाराज के मार्गदर्शन में चामुण्डराय ने गोमटेश बाहुबली की प्रतिमा का निर्माण करवाया। इतिहास बताता है कि उस प्रतिमा के निर्माण में आचार्य नेमीचंद्र जी ने घंटों ध्यान किया। मैं आपको कहना चाहता हूँ कि गोमटेश बाहुबली का निर्माण चामुण्डराय के दान से नहीं, नेमीचंद्र आचार्य के ध्यान से हुआ है, उनकी साधना से हुआ है। उस प्रतिमा का निर्माण उनकी साधना की निष्पत्ति है। और अगर वो नहीं करते तो क्या होता? कितनी अनुकम्पा? आचार्य नेमीचंद्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने गोमटसार और लब्धिसार व छपणासार जैसे महान ग्रंथों का सृजन किया। लेकिन वो ग्रन्थ तो केवल उनके लिए हैं जिनका जिनागम में प्रवेश है, जो शास्त्र खोलकर पढ़ना जानते हैं, पर मैं मानता हूँ कि उन नेमीचंद्र आचार्य महाराज के द्वारा बाहुबली भगवान के रूप में जिसकी स्थापना की गई वह एक ऐसा महान ग्रन्थ है जिसे देखकर ही समझा जा सकता है, पढ़ने की भी जरूरत नहीं है। अनपढ़, अँगूठा छाप व्यक्ति भी जिससे अपनी आत्मा के कल्याण का पाठ पढ़ सकता है, अपने जीवन का उद्धार कर सकता है। ये उनकी कृपा है। आचार्य कुन्दकुन्द ने शुभोपयोगी मुनियों की चर्या का विधान करते हुए कहा कि ‘वो जिनेन्द्र भगवान की पूजा का भी उपदेश देते हैं’; वैयावृत्ति करना, शिष्यों का ग्रहण-पोषण करना और जिनेन्द्र भगवान की पूजा का उपदेश देना- ये शुभोपयोगी मुनियों की भूमिका है और इसी से जिन शासन की उन्नति होती है। इसलिए जहाँ तक इस तरह के कार्यक्रम में मेरे या मेरे जैसे मुनियों या अन्य आचार्यों के INVOLVEMENT का और उनके अपने धर्म ध्यान का सवाल है, तो मैं आपसे ये कह दूँ कि धर्म ध्यान वही करता है जो अपने आप में जाग्रत रहता है और जब तक भीतर की जागृति है तब तक कोई किसी का धर्म ध्यान छुड़ा नहीं सकता है। मुझ पर मेरे गुरू ने ऐसी कृपा की और संस्कार डाले कि २४ घंटे मुझे मेरा पता रहता है कि मुझे क्या करना है और क्या नहीं करना है। मैं अपने दायरे का कभी उल्लंघन नहीं करता हूँ न करने देता हूँ, बाकी सब चीजें लोग अपने-अपने तरीके से कह सकते हैं। मैं बस इतना ही कहता हूँ कि साधु भगवन्तों का समाज को सही मार्गदर्शन न मिले तो हम अपनी संस्कृति को सुरक्षित नहीं रख सकते हैं इसलिए इन सब बातों को ध्यान में रखना चाहिए। हम भी ध्यान में रखते हैं और आप भी ध्यान में रखें।

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