कर्मों के फल पर काल-क्षेत्र-द्रव्य-भाव का क्या प्रभाव पड़ता है?

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शंका

काल-क्षेत्र- द्रव्य-भाव में हमारे कर्म किस तरह बन्धते हैं? बन्धते भी हैं और बिगड़ते भी हैं, कभी ऐसा संयोग क्यों बनता है कि धर्म से लोगों का विश्वास समाप्त होने लगता है? धर्म के प्रति अगाध श्रद्धा होते हुए भी दृष्टिकोण एकदम बदल जाता है, उस विश्वास को हम वापस कैसे लायें, कृपया समाधान करें?

समाधान

बात सही है, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के आश्रय से कर्म का प्रभाव पड़ता है। अनुकूल धर्म क्षेत्र काल भाव में हमारी मन: स्थिति अलग होती है और प्रतिकूल दव्य क्षेत्र काल भाव में हमारी स्थिति अलग होती है। जैसा atmosphere होता है कर्म वैसा अपना फल देते हैं, यह एक बहुत बड़ा सच है। इसलिए इस सन्दर्भ में कहा जाता है कि अगर तुम्हें अपने आप को ऊँचा उठाना है, तो कर्म के प्रतिकूल धर्म क्षेत्र काल भाव में रहो माने ऐसे वातावरण से बचो जिससे कर्म को बल मिलता है, अपितु ऐसे वातावरण में रहो जिससे तुम्हारी आत्मा को बल मिले। अनुकूल द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव में ही मोक्ष की साधना होगी, प्रतिकूल धर्म क्षेत्र काल भाव में नहीं। हम लोग नित्य शान्ति भक्ति में यह प्रार्थना करते हैं

तद्द्रव्यमव्ययमुदेतु शुभ: स देश:

सन्तन्यतां प्रतपतां सततं स काल:

भाव: स नन्दतु सदा यदनुग्रहेण

रत्नत्रयं प्रतपतीह मुमुक्षुवर्गे।।१६।।

एक मुनि क्या भावना भाता है, हे प्रभु! मुझे हमेशा ऐसे द्रव्य का, ऐसे शुभ देश का, ऐसे काल का और ऐसे भाव का लाभ मिले जिससे मेरा रत्नत्रय फलता रहे। समझ गए, अनुकूल द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की कामना एक निर्ग्रन्थ मुनि के हृदय में भी होती है इसलिए अनुकूल द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के प्रति अपनी दृष्टि होनी चाहिए। 

आपने पूछा है, किसी की श्रद्धा अगर धर्म से डगमगा जाए तो क्या करें? हो सकता उसको कोई निमित्त मिले और उसकी श्रद्धा डगमगा गई; बहुतों की डगमगाती है। एक निमित्त मिले व्यक्ति को श्रद्धालु बनाता है और एक निमित्त उसको अश्रद्धालु बना देता है। हमें चाहिए कि ऐसे लोगों की श्रद्धा जो डगमगा रही है हम उसके अनुकूल द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव बना दें तो वह भी स्थिर हो जाए। 

हम आपको एक प्रसंग बताते हैं। हम ऐलक थे, थूबोनजी की बात है। हमारे संघ में एक और ऐलक जी महाराज थे। उन दिनों थूबोनजी में जगह नहीं थी तो मन्दिरों की दलान में ही संघ रुका था। एक ही मन्दिर के बाहर हम दो महाराज थे, हमारे साथ वाले महाराज लिखा-पढ़ी ज़्यादा करते थे तो उनके पास जो पैड थे, वह ऐसा लगता था ऊपर से देख कर जैसे रसीदबंदी हो, उसमें कार्बन भी था। भीड़ थी, रविवार का दिन था। महाराज जी अपने सीट पर थे नहीं, मैं वहीं बैठा था। कुछ युवा लोग आए, एक की नजर उस रसीद पैड पर पड़ी, उसने कहा – अच्छा! अब यहाँ भी चंदे का धंधा शुरू हो गया। उसने बोला, मैंने सुन लिया, सुनने के बाद मैंने धीरे से उसको बुलाय- “भाईसाब! आइये न यहाँ पर, आपने कुछ चंदा नहीं दिया, चंदा दीजिये ना” वह झेंपा-सकपकाया। “कोई बात नहीं, हम साधु लोगों को बहुत रुपयों की जरूरत होती है, आपको जो देना है दे दीजिए।” अब उसके मन में थोड़ी कौतूहल जगा। “आपको जो करना है कर दीजिए”, मैंने वह पैड बढ़ा दिया। अब उसने कौतूहल-जिज्ञासा के साथ उसको उठाया, खोला, उसमें तो नोट्स लिखे हुए थे। एकदम सकपकाया- “महाराज गलती हो गई।” मैंने कहा “भैया! देख, आज के बाद किसी साधु के चर्या पर तेरे मन में कोई संशय हो तो तुरन्त निवारण कर लेना। यह तो गनीमत रही कि मैंने देख लिया और तेरे इस भ्रम के निवारण के लिए रास्ता अपनाया। नहीं तो तू जाकर कहता कि आचार्य विद्यासागर महाराज के संघ में एक ऐलक जी चंदा इकट्ठा कर रहे थे, मैं खुद रसीद कटा के आया हूँ।” यह जो सोच है बदलती है अनुकूल द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव हम देंगे, तभी हमारा परिणाम निकलेगा।

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