आत्मिक सुख की अनुभूति कैसे होती है?

150 150 admin
शंका

हे गुरुवर, हम जो सुख-दुःख भोगते हैं, वे आत्मिक हैं या सांसारिक? यदि वे सांसारिक अथवा शारीरिक हैं तो फिर वे झूठे हैं। तब क्या उनमें प्रतीति से मिथ्यात्त्व का पोषण होता है, अथवा नहीं? कृपया आत्मिक सुख की अनुभूति कैसे होती है, बताने का कष्ट करें?

समाधान

बहुत अच्छी बात आपने पूछी है। हमारे जीवन में जो भी सुख प्राप्त होते हैं, वे सारे के सारे सुख पंचेन्द्रिय के विषयों के आश्रित या पर संयोगों के अधीन होते हैं। पंचेन्द्रिय विषय के आश्रित या पर संयोग के निमित्त से उत्पन्न होने वाले जो भी सुख हैं, वो आत्मिक सुख नहीं कहला सकते। उसे हम भौतिक सुख कह सकते हैं, उसे हम इन्द्रिय सुख कह सकते हैं और संसारी प्राणी को ऐसा ही इन्द्रिय सुख मिलता है। आत्मिक सुख वो होता कि

अतिशयं, आत्मसमुत्थं, विषयातीतं, अनौपम्यं, अनन्तं।

अव्युच्छिन्नं, च सुखं शुद्धोपयोग प्रसिद्धानाम्।।

जो अतिशय स्वरूप हो, आत्मा से उत्पन्न हो, इन्द्रियातीत हो और अनुपम हो, जो कभी नष्ट न होने वाला हो, ऐसा सुख केवल शुद्धोपयोगियों को ही होता है। शुद्धोपयोग से पूर्व जो भी सुख है वो इन्द्रिय सुख है और इन्द्रिय सुख की प्रतीति सम्यक् दृष्टि को भी होती है, मिथ्या दृष्टि को भी होती है। अन्तर केवल इतना होता है कि मिथ्या दृष्टि इन्द्रिय सुख को उपादेय मान करके प्रतीति करता है और सम्यक् दृष्टि इन्द्रिय सुखों में हेय बुद्धि रखता है। ऐसा मत सोचना कि जो इन्द्रिय सुख का अनुभव करता है वो मिथ्या दृष्टि है। हमें आचार्य कुंद-कुंद की इस उक्ति को ध्यान रखना चाहिए, जो उन्होनें लिखा कि नीचे की भूमिका में रहने वाले सम्यक् दृष्टि इन्द्रिय सुखों में किस तरह से मग्न रहते हैं। उन्होंने लिखा-

कुलिशायुधचक्रधराः शुभोपयोगात्मकैः भोगैः।

देहादीनां वृद्धिं कुर्वन्ति सुखिताः इव अभिरताः।।

कुलिशायुध और चक्रवर्ती, यानी इन्द्र और चक्रवर्ती शुभोपयोग से प्राप्त सुखों के द्वारा, भोगों के द्वारा अपने शरीर आदि की वृद्धि करता है और अपने आप को सुखी जैसा महसूस करता है, सुखी नहीं होता। इसकी टीका में आचार्य अमृतचंद जी ने लिखा

जलौकसोऽत्यन्तमासक्ताः

ऐसा शब्द का प्रयोग किया जैसे गाय के थन में चिपका हुआ जौं अति आशक्ति से उसका सड़ा खून पिता है और अपने प्राण गवाँ देता है, अमृतोपम दूध नहीं पीता। इसी तरह कुलिशायुध यानी इंद्र, जो नियमतः सम्यक् दृष्टि होता है और चक्रवर्ती भी शुभोपयोगात्मक भोगों में अनुरक्त रहते हैं। प्रवचन सार के इस उक्ति से ये बात एकदम स्पष्ट है कि यह भोग-लिपसा सम्यक् दृष्टि की भी नष्ट नहीं होती। सराग भूमिका में वो भागों में निरत रहता है लेकिन उन्हें उपादेय नहीं मानता है।

Share

Leave a Reply