पंचम काल में सम्यक् दर्शन नहीं, फिर मुनि दीक्षा कैसे लेते हैं?

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शंका

पंचम काल में सम्यक् दर्शन नहीं, फिर मुनि दीक्षा कैसे लेते हैं?

समाधान

सम्यक् दर्शन हमारी साधना का मूल है। बिना सम्यक् दर्शन के हमारा ज्ञान और चरित्र कार्यकारी नहीं होता, इसलिए सम्यक् दर्शन की भावना तो सदा सबको भाते ही रहना चाहिए। अब रहा सवाल कि हमारे भीतर सम्यक् दर्शन है या नहीं? यह तो हमारे भवितव्य पर निर्भर करता है, हमारे पुरुषार्थ में क्या है? ग्रहित मिथ्यात्व को त्यागना; आत्मा की भावना भाना; तत्त्व का चिंतन करना; संसार, शरीर और भोगों से यथासम्भव विरक्त रहने का भाव रखना; यह सम्यक्त्व की भूमिका है और इसके साथ ज्ञान और चरित्र के क्षेत्र में आगे बढ़ें। 

तो ये भावना होने के बाद भावना होती है लेकिन हमारे जो पुराने संस्कार है राग के, वह हमें अपनी और खींच लेते हैं। आचार्य पूज्यपाद ने अपने समाधि तन्त्र में मुनियों के लिए लिखा-

जानन्नप्यात्मनस्तत्त्वं विविक्तं भावयन्नपि।

पूर्वाविभ्रमसंस्काराद् भ्रान्तिं भूयोऽपि गच्छति।।

अर्थात् पुराने संस्कारों के आत्मा के तत्त्व को जानते हुए, एकांत में उसकी भावना भाते हुए भी पुराने संस्कारों के कारण मन बार-बार उधर लुढ़क जाता है। लेकिन यह लुढ़कना आचारगत है श्रद्धानगत नहीं। श्रद्धान मज़बूत हो तो, तुम संसार के कार्य करते हुए भी अपने सम्यक्त्व को बचा सकते हो और श्रद्धान कमजोर हो तो संसार में कुछ भी करो भटक सकते हो। 

तो हमारे पुरुषार्थगम्य यही है कि हम अपने आप को सम्यक् दृष्टि मान करके चलें, सम्यक्तोचित क्रियाओं को करें। ऐसी किसी भी क्रिया को अपने जीवन में न पनपने दें, जो किसी भी तरह से सम्यक्त्व की विराधना में कारण बनें या जिससे मिथ्यात्व मंडित होता हो, तो निश्चित ही हम अपने जीवन को सफलता के शिखर पर पहुँचाने में सफल होंगे।

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