हम मन सहित जीव हैं। हम लोग तो अपना कल्याण कर सकते हैं। लेकिन जो स्थावर और निगोदिया जीव हैं वो अपना कल्याण कैसे करें?
यह होनहार पर निर्भर होता है। मन सहित जीव अपने तरीके से अपना कल्याण कर सकता है। मन रहित जीवों के ऐसे कल्याण की संभावनाएँ नहीं बनती। स्थावर आदि जीवों का जब संयोग बनता है, तो उनमें से कोई-कोई, निगोद में रहने वाले अनन्त जीव, कुछ ऐसे जीव जिन्होंने आज तक निगोद के अतिरिक्त अन्य किसी पर्याय को प्राप्त नहीं किया, उनमें से कुछ जीव ऐसे भी होते हैं जो सीधे निगोद पर्याय से निकलकर साक्षात् मनुष्य पर्याय को प्राप्त करते हैं और आठ वर्ष अन्तरमुहूर्त में मुनि बनकर मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं, ये होनहार की बात है। उनके साथ अवधिज्ञान श्रुतज्ञान तो है ही, अब रहा सवाल उनमें कषायों की तीव्रता का?
मन के पाप अलग होते हैं लेकिन मन के बिना भी पाप होते हैं। एकेन्द्री से लेकर असंज्ञी तक भी पाप करते हैं। उनके पाप का स्तर मन वाले प्राणियों के स्तर से बहुत अल्प होता है इसलिए उनका बन्ध भी बहुत कम होता है। हम तो सामान्य प्राणी, पंचेन्द्रिय प्राणी हैं। आप उनके स्तर की बात का अनुमान लगाऐं तो इससे लगा लें कि हमें अन्त कोड़ा-कोड़ी सागर से कम की आयु का बन्ध नहीं होता और असंगी पंचेन्द्रि अगर बन्ध करेगा तो एक हजार सागर से अधिक की स्थिति का बन्ध नहीं होगा। एक हजार सागर! तो वो पाप भी कम करते हैं पुण्य भी कम करते हैं। उनका हिसाब बराबर रहता है।
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