लोभ पाप का बाप!

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शंका

पाँच पाप होते हैं। पर हम ‘लोभ कषाय’ को पाप नहीं मानते। जितना अधिक हमारा परिग्रह बढ़ता जाता है उतनी अधिक आनन्द की अनुभूति होती है। हमें कितना पाप का बन्ध होता होगा! इससे हम कैसे बचें?

समाधान

ये बड़ी विसंगति की तरफ आपने ध्यान आकृष्ट कराया है। पाँच पापों में चार को सब पाप मान लेते हैं लेकिन परिग्रह को पुण्य का फल मानने लगते हैं। जब तक यह धारणा नहीं बदलेगी, तब तक परिग्रह या लोभ की आसक्ति नहीं मिटेगी।

इस सच्चाई को समझिए, परिग्रह क्या है पुण्य है या पाप? आपने जितना घर में पैसा जोड़ा, वह पाप जोड़ा कि पुण्य? पाप! पाप करके क्या अपना कल्याण कर पाओगे? फिर भी तुम लोग २४ घंटे अकल्याण का प्रबन्ध करते हो। महाराज के पास आ कर कहते हो-“महाराज कल्याण का उपदेश दो। ऐसा आशीर्वाद दो कि हमारा धंधा और फले” यानि पाप बढ़े। धर्म बढ़ने की भावना अपने हृदय में जगानी चाहिए, concept (अवधारणाएं) clear (साफ) करो। परिग्रह का मतलब ही है पाप का संग्रह!  बिना पाप किए आप पैसा नहीं कमा सकते हैं। यह हो सकता है कि अनैतिकता के रहित आप पैसा कम कमा सकें, अनीति के बिना आप पैसा कमा सकें, नैतिकता और प्रमाणिकता से जुड़कर आप पैसा कमा सकते हैं लेकिन पाप मुक्त होकर निष्पाप वृत्ति से कोई भी पैसा नहीं कमा सकता। क्योंकि षटकाय जीव निकाय की हिंसा तो होती ही होती है, इसलिए वो पाप है।

परिग्रह पाप ही नहीं, पाप का बाप है। सब पापों को जन्म देने वाला है, सारे टंटे तो परिग्रह के पीछे ही है यह कोंसेप्ट जिस दिन क्लियर हो जाएगा, उस दिन पैसा कमाने के बाद मान नहीं बढ़ेगा अपितु पैसा कमाने के बाद अन्दर से आत्मग्लानि प्रकट होगी और उस पैसे को पाने के बाद उदारतापूर्वक उसे अच्छे कार्य में लगाने का भाव होगा जो तुम्हारे पाप को कुछ अंशों में पुण्य में परिवर्तित करने में निमित्त बनेगा।

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