विपत्ति के समय में साधर्मी के प्रति समाज का कर्तव्य!

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शंका

अगर कोई व्यक्ति देव-शास्त्र-गुरु में पूर्ण विश्वास रखता है और अपना काम पूर्ण श्रद्धा और लगन से करता है, किन्तु जब उसके पर, उसके परिवार पर कोई परेशानी आती है, तो हमारे गुरुजन, ज्ञानी जन, पंडित जनों द्वारा कहा जाता है कि ‘आपका पुण्य कमजोर है।’ ऐसे समय में धार्मिक परिवार के प्रति समाज का क्या उत्तरदायित्व बनता है? क्या उस परिवार को ‘पूर्व कर्म के उदय’ के नाम देकर तड़पते और दुखी रहने के लिए छोड़ दिया जाना चाहिए?

समाधान

जिस व्यक्ति के साथ ये घटना घट रही है उसे परमुखापेक्षी न होकर स्वयं को मजबूत बनाना चाहिए। तत्वज्ञान का आश्रय लेकर के जीवन की इस वास्तविकता को स्वीकार करना चाहिए। ये जो कुछ है मेरे कर्म के उदय की परिणीति है कि सब कुछ अच्छा करने के बाद भी आज मेरे साथ संयोग अनुकूल नहीं बन रहें हैं। 

हाँ, लेकिन हमारे समाज में समाज के लोगों को साधर्मी वात्सल्य का उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए। साधर्मी वात्सल्य सम्यक् दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण अंग है और ये कहा गया है कि ‘यदि कोई भी तुम्हारा बीच का धर्मात्मा किसी परिस्थिति के कारण परेशान हो रहा है विपत्ति में फंसा है, तो उसके लिए तुम्हें यथासम्भव सहयोग देना चाहिए उसे उसके हाल पर छोड़ना धर्म सम्मत नहीं है अपनी ओर से जो उत्कृष्टतम दिया जा सके देकर उसे संभालने की कोशिश करना चाहिए। उसे अपने हाल पर छोड़ना अज्ञान है और सम्भाल लेना हमारा धर्म।

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