बच्चों को आदेश नहीं, संस्कार दें!

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शंका

वर्तमान समय में माँ-बाप के क्या कर्तव्य हैं? वर्तमान समय में बच्चों को कैसे संस्कार दें जिससे बच्चे संस्कारवान बनें क्योंकि आजकल परिवार सीमित हैं, आमतौर पर लोगों के एक ही सन्तान होती है। बच्चों के दिमाग में यह रहता है कि ‘मैं परिवार में अकेला हूँ तो मेरे माँ-बाप मेरी बात मानेंगे’, ऐसी परिस्थितियों में हम लोगों को क्या करना चाहिए?

समाधान

सन्तान को जन्म देना ही पर्याप्त नहीं है। जन्म देकर संस्कार देना माँ-बाप की बड़ी जिम्मेदारी है और यदि आपने किसी सन्तान को जन्म दिया है, तो उसे संस्कार थोपिये मत, उसके ह्रदय में संस्कार जगाइए। 

पहला काम तो माँ-बाप को यह करना चाहिए कि खुद का जीवन ऐसा बनाएँ कि आपका बच्चा आपको देखकर ही बहुत सारी चीजें सीख ले। दूसरी बात मनोवैज्ञानिक तरीके से बच्चों के दिल दिमाग में अपने जीवन की सीमा रेखा का हम बोध करा दें- ‘यह कार्य करणीय है, यह कार्य अकरणीय है’ ऐसा मनोभाव अगर हम जगा दें तो बच्चे बहुत सारे अकृत्यों से अपने आप को बचा लेंगे और उनका जीवन आगे बढ़ेगा। 

हम लोग या तो निषेध/वर्जना करते हैं या सीधे आदेश थोपते हैं और हम कहते हैं कि यह संस्कार दे रहे हैं। यह संस्कार नहीं है-‘यह मत करो, यह मत करो, यह मत करो, यह करो, यह करो, यह करो।’ संस्कार देने के नाम पर ‘धर्म संस्कार देना मन्दिर जाओ, महाराज आए तो प्रवचन सुनो, रात में नहीं खाओ, यही हमारा संस्कार है’ – अधिकतर यही बोलते हो न आप लोग अपने बच्चों से! यह संस्कार है या आर्डर है? आदेश को संस्कार मानने का भ्रम छोड़िए। बच्चों के हृदय में भावना जगाओ कि मन्दिर हमारे जीवन की कितनी आवश्यकता है! धर्म और धार्मिकता हमारे जीवन का कितना महत्त्वपूर्ण अंग है? इससे मैं कभी विमुख न होऊँ। पाप और दुर्व्यसन हमारा पतन किस तरीके से कराते हैं, यह जागरूकता हमारे मन में हो तो मनुष्य इन सब चीजों से धीरे-धीरे दूर होगा। फिर बड़े होने पर उनको कहना नहीं पड़ेगा और आपके जीवन में भी वो चीजें आयें। 

एक युवा है, जो अभी एक मल्टीनेशनल कंपनी में जॉब कर रहा है, उसने कहा ‘महाराज जी! मेरे पिताजी ने मुझे जीवन में जो कुछ भी सिखाया आज उसकी अमिट छाप मुझ पर है और मेरे पिताजी हमेशा ये कहते थे कि “बेटे! मेरे पिताजी मुझे ऐसा कहते थे” और अपनी बात को बड़ी logically (तार्किक) और psychologically (मनोवैज्ञानिकता से) मुझे समझाते थे। आज वे सब बातें मेरे ज़हन में हैं। मुझे अपने जीवन की लिमिट का पता लग गया, मर्यादाओं का पता है। मैंने लंदन से एम. एस. करने पर भी अपने जीवन में अपनी मर्यादा को नहीं त्यागा क्योंकि मेरे पिता ने मेरे हृदय में ऐसी पट्टी पहले से पढ़ा रखी थी, संस्कार अंकित कर रखे थे। मैं चाहता हूँ अपने बच्चों को भी वैसे ही संस्कार दूँ’।

तो आदेश मत थोपिये, संस्कार गढ़िये, बच्चे कभी बाहर नहीं जाएँगे।

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