क्या मृत्यु भोज और ब्राह्मण भोज जैन धर्म की दृष्टि से उचित है?

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शंका

जैन समाज के इतना शिक्षित होते हुए भी गाँव में आज भी मृत्यु भोज की जड़ें और मजबूत होती जा रही हैं। तीये की बैठकों में कई तरह की मिठाइयाँ बनाना होड़ सी हो गई है, बर्तन वगैरह बाँटना बदस्तूर चालू है। पूरा गाँव भोजन के लिए निमंत्रित किया जाता है, मरने वाले को तो लोग भूल जाते हैं और ऐसा माहौल हो जाता है जैसा शादी में भी नहीं होता। क्या ब्राह्मणों को भोजन कराने से हमारा सूतक निकलता है? यदि हाँ तो क्या एक ब्राह्मण को खिलाने से काम नहीं चल सकता? कई अनपढ़ जातियों में सुधार हो रहा है मगर हमारे जैन समाज में क्यों नहीं हो सकता, गलत कौन? मेरा परिवार या मृत्यु भोज करने वाले?

समाधान

मैंने इस विषय में पहले भी अनेक बार चर्चा की। यह एक प्रकार की कुरीति है हमारे किसी भी मूलशास्त्र में किसी के मरण के उपरान्त इस तरह की व्यवस्था का कोई भी विधान नहीं हैं। किसी की मृत्यु हो, उसके बाद तीये की बैठक हो, पहले खाने-पीने की भी जो व्यवस्था होती थी, उसके पीछे दो अलग भावना होती थी। तीये के दिन क्यों? आदमी के यहाँ मृत्यु हो गई, व्यक्ति हताश हो गया तो समाज के लोग उसके घर जाते, उसे लेकर आते, उसे शोक सांत्वना देते हैं फिर उसके प्रतिष्ठान को खोलने की प्रेरणा देते है कि “भाई अब जो होना था वह तो हो गया। आने-जाने वाले को तो रोक नहीं सकते, वापस समय धारा में आओ और मुख्यधारा में आ करके आप अपने काम-धाम में लगो।” यह तीये का मूल प्रयोजन था ताकि आप अपनी रूटीन जिंदगी जियें। इसके बाद १२ दिन पूरे होने के बाद तेरहवीं के दिन में सूतक खत्म होता है। 

शास्त्र में केवल दो ही विधान हैं पात्र दान और देव पूजा। ये हमारी सूतक के मिटने का आधार हैं। अगर घर में कोई शोक हुआ है, सन्ताप हुआ, आपका समय पूरा हुआ, पात्र दान दो, देव पूजा करो। ये हमारे मन्दिरों में है, आज भी हमारी समाज में परम्परा है किसी की मृत्यु होती है, मृत्यु के बाद जब १२ या १३ होता है, तो उस दिन समाज के बीच में चतुर्विध दान की घोषणा अपनी शक्ति के अनुसार करते हैं। कायदे से मुनिराज हो तो उनको साक्षात् दान देना चाहिए, लेकिन नहीं है, तो यह हमारी एक परम्परा है, पात्र दान करते, शांति विधान करते हैं, एक देव पूजा का प्रतीक है। यह देना चाहिए लेकिन इतना सारा भोज आदि करने की बात ठीक नहीं। पात्र दान और देव पूजा तो इसलिए कि चलो देव पूजा करो, पात्र दान दो, नए पुण्य का उपार्जन करो और अपने जीवन को यथासम्भव सामान्य बनाने की कोशिश करो, यह हमारी प्रक्रिया थी लेकिन यह बहुत सारी कुरीतियाँ हमारे यहाँ बाहर से आकर जुड़ गई। हमें इस तरह की कुरीतियों से बचना चाहिये। 

कई बार तो ऐसा लगता है जैसे एकदम अमानवीय जैसा हो गया। एक व्यक्ति ने बताया कि उसके यहाँ एक कच्ची मौत हुई, उसकी धर्मपत्नी की अल्प आयु में मृत्यु हो गई और धर्म पत्नी की मृत्यु के प्रति संवेदना जगाने के लिए आने वाले लोगों के लिए उसे मीनू सेट करना पड़ा, हलवाई बुलाना पड़ा। शोक सन्तप्त है वो और आप उसके यहाँ सांत्वना देने जा रहे हैं, सहानुभूति प्रकट करने जा रहे हैं कि उसके लिए बोझ बन रहे हैं। यदि आप शोक सन्तप्त परिवार को सांत्वना देने जा रहे हैं, आप अपनी संवेदना उनके प्रति प्रकट करने जा रहे हैं, आपके ह्रदय में भी संवेदना होनी चाहिए। आप वहाँ जाओ तो कुछ भी खाओ-पियो मत, अगर आप स्थानीय हैं तो वहाँ जाकर के कुछ भी मत खाओ-पियो। अगर आप बाहर से आए हैं तो भोजन करो, कोशिश करो कि “हम वहाँ भोजन करेंगे तो कोई मिठाई और पकवान नहीं खाएँगे”, इतना तो संकल्प ले लो। आजकल तो सब कुछ चलता है, जैसे कोई शादी का माहौल हो। जैसा कि आपने भी लिखा है उस परिवार के ऊपर क्या बीतती होगी, लोक-दिखावे में उन्हें करना पड़ता है! उनकी मजबूरी होती है पर आपकी संवेदना कहाँ है, यह चीजें हमें समझ करके चलना चाहिए। एक व्यक्ति ने कहा, जब शव यात्रा होती है, तो श्मशान में भी चाय तक आ जाती है, मिनरल वाटर की बोतल आ जाती है, वह प्रोवाइड करना पड़ता है। हम कहाँ जा रहे हैं, यह हमारी क्षीण होती हुई संवेदनाओं की अभिव्यक्ति है, लोग दिनोंदिन बड़े कुंठित होते जा रहे हैं। हमें इनकी तरफ बहुत सावधान और सजग होने की आवश्यकता है। यदि हम ऐसी सावधानी नहीं रखेंगे तो कभी भी परिणाम अच्छे नहीं आएँगे। 

मैं तो इन सबके लिए कहूँगा बहुत सारी जागरूक समाजों ने अपने यहाँ प्रतिबंध लगाये हैं। आप लोग भी सामाजिक स्तर पर प्रतिबंध लगाएँ और कदाचित ऐसा सम्भव नहीं है, तो व्यक्तिगत रूप से यह तय करें कि “मैं अपने गाँव के गाँव में यदि किसी शोक सन्तप्त परिवार में सम्मिलित होऊँगा तो अपने कुटुम्ब के बाहर कहीं भोजन नहीं करूँगा और कुटुम्ब के यहाँ भोजन किया तो सादा भोजन करूँगा मिष्ठान और पकवान का सेवन नहीं करूँगा।” ये आप अपने मन में डालें तो बहुत बड़ा परिवर्तन होगा, एक क्रांति खड़ी होगी, ऐसा होना चाहिए। 

रहा सवाल ब्राम्हण को जीमाने का तो जैन धर्म में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। लोग भरे को भरते हैं खाली को भरें तो फायदा है। मैं कोलकाता में था तो लोगों ने बताया कि इनको जीमाने के लिए बहुत मनुहार करने पड़ते हैं, उनकी बड़ी-बड़ी डिमांड होती है वो तो आना नहीं चाहते। बड़ी मुश्किल है ये तो इस तरह की परम्परा का जैन धर्म में कहीं स्थान नहीं है। आप मानवता की सेवा कीजिए, दीन दुखियों की सेवा करें वही हम सबके कल्याण का कारण है। इस तरह के ढकोसलेबाजी में कुछ भी सार नहीं है इसलिए ऐसी रूढ़ियों से बचना चाहिए, समाज को बचाना चाहिए।

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