क्या इस भव का पाप-पुण्य का फल इसी भव में मिलता है?

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शंका

क्या इस भव के पाप-पुण्य का फल इसी भव में मिलता है और पिछले भवों के पाप-पुण्य कब तक चलते रहते हैं?

समाधान

इस भव के पाप और पुण्य का कुछ बैलेंस बचता है जो अगले भव में मिलता है, और अतीत के भव को हम आज भी भोग रहे हैं, आगे भी भोगेंगे। एक जीव एक समय में ७० कोड़ा-कोड़ी सागर के पाप को इतने काल तक भोगने योग्य कर्म को बांध सकता है, पुण्य तो उससे ज्यादा नहीं होता। पुण्य की स्थितियाँ कम होती हैं। कर्म सिद्धान्त में इसका पूरा वर्णन है। तो कुछ अभी और कुछ आगे ऐसा बैलेंस चलता रहता है। हम कुछ कार्य को तुरंत भोगते हैं और कुछ कार्य को आगे पीछे भोगते हैं। 

 एक अनुभव मुझे याद आया। देखो कि आदमी कभी-कभी पाप कैसे भोग लेता है! मेरा एक मित्र था उसकी आदतें बहुत खराब थीं, ज्यादा खर्चीला था। उसके घर में गृह प्रवेश हुआ और गृह प्रवेश में कलश रखा जाता है। तो कलश में सवा रूपये रखे जाते थे, पहले चाँदी के होते थे। वो लड़का थोड़ा चंचल प्रवृत्ति का था। उद्दण्ड प्रवृत्ति का था। उसने वो सवा रुपया पार कर दिया। सवा रुपया निकाला और बाजार में खा-पी लिया। उसने थोड़ा शेयर हमको भी दिया था हमको पता नहीं था कि ये चोरी का है, बहुत छोटे की बात है। संयोग ये हुआ कि जिस दिन निकाला उसी दिन उसका हाथ टूट गया। सुबह पैसा निकाला और शाम को हाथ टूट गया। तो हमने कहा कि ‘देख! तूने पाप किया और आज का फल तुझे आज मिल गया।’ 

ये तो कहने की बात है कि कुछ पाप होते हैं जो तुरंत फल देते हैं कुछ हैं जो कालांतर में देते हैं। मेरा ऐसा अनुभव है कि पुण्य और पाप का तात्कालिक फल मिले बिना नहीं रहता है। जैसे आप कोई अच्छा कार्य करते हैं समय आपको क्या फल होता है? आपने किसी व्यक्ति को एक हजार रुपया दिया एक भूखे परिवार की खाने-पीने की व्यवस्था कर दी। एक हज़ार रुपये देने के कितने देर बाद आपको सन्तुष्टि मिली? तुरंत मिली। आपने किसी के हज़ार रूपये नजर बचाकर निकाल लिए। आपके मन में शंका कितनी देर बाद आती है? तुरंत आती है! कहीं पोल न खुल जाए? भय रहता है। इसका मतलब पुण्य और पाप का फल तुरंत मिलता है। अच्छे का फल सन्तुष्टि है और बुरे का फल आकुलता है। ये दोनों साथ-साथ चलते रहते हैं। तात्कालिक परिणाम तो मिलता ही है। पारम्पारिक फल के रूप में पुण्य का फल समृद्धि है और पाप का फल दुःख दारिद्र्य है। इसमें कुछ फेर हो सकता है। कोई पुण्य करे और कालांतर में उसके संयोग और बिगड़ जायें, हो सकता है कि उसका पुण्य ठीक रूप से न फले और कोई पाप करे और भविष्य में उसके संयोग अनुकूल हो जाएँ तो ये भी हो सकता है कि पाप करने वाला भविष्य में अपने संयोग के अनुकूल होने पर उस पाप को भी पुण्य में परिवर्तित कर ले। अपने पुरूषार्थ पर बहुत कुछ अवलम्बित (निर्भर) होता है। तो पुण्य और पाप का सिस्टम है कुछ हम तत्काल भोगते हैं और कुछ को कालांतर में भोगा जाता है।

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