क्या जैनियों को खेती करने में दोष लगता है?

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शंका

क्या हम जैनियों को खेती करने में दोष लगता है?

समाधान

खेती को आर्य-कर्म कहा गया है। छह प्रकार के आर्यकर्मों में, अर्थ-उपार्जन के कर्म में असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प शामिल हैं। गृहस्थ के जीवन के निर्वाह के लिए जीविका जरूरी है और जीविकोपार्जन के लिए अर्थ उपार्जन करना पड़ता है, उसमें कृषि भी कहा। 

कृषि एक उत्तम कर्म है, कृषि में कुछ गलत नहीं है, लेकिन कब? जब कृषि को आप ठीक तरीके से संपन्न करो। कृषि का कार्य कृषि के तरीके से करेंगे, तभी आपका काम होगा। खेती में आरम्भी हिंसा है, संकल्पी हिंसा नहीं है; लेकिन खेती के कार्य में यदि आप कीटनाशकों का प्रयोग करते हैं, तो आप घोर संकल्पी हिंसा के भागीदार बनते हैं। आप खेती करें, काली मिट्टी सफ़ेद पैसा देती है। कोई टैक्स नहीं, कुछ झंझट नहीं और आपके भाग्य की परीक्षा है। आपने बीज खुले खेत में डाल दिया, जो पक कर के आ गया वही अपना है, उसमें सन्तोष भी होता है। लेकिन कोई भी खेती का कार्य करें, कभी भी कीटनाशक के एक कण का भी प्रयोग न करें, इसमें घोर संकल्पी हिंसा होती है। ऐसी हिंसा से अपने आप को बचा कर के रखने की कोशिश करनी चाहिए। आप अपने आप को इस हिंसा से बचा करके चलें। एक बात और ध्यान में रखें- केवल फसल नहीं फलती, आपका पुण्य भी फलता है। अगर आपका पुण्य तेज होगा तो आप कुछ नहीं डालो तो भी अच्छी फसल आएगी और पुण्य क्षीण होगा तो आप कितना भी डालो, आपको नुकसान हो जाएगा।

 एक बार की बात है, दो भाई थे। दोनों भाइयों की १५०-१५० एकड़ की खेती थी। मैंने अपने प्रवचन में कहा कि कीटनाशकों का प्रयोग घोर हिंसा है और यह आत्मा के पतन का कारण है। ऐसी हिंसा से बचना चाहिए, हिंसा के मूल्य पर अर्जित कमाई उचित नहीं। मेरी बात को सुनकर एक भाई ने संकल्प लिया कि ‘महाराज आज के बाद मैं कीटनाशक का प्रयोग नहीं करूँगा।’ उसका भाई भी वहीं था, मैंने उससे भी कहा-बड़े भाई की तरह आप भी कीटनाशक का त्याग कर दो। उन्होंने कहा ‘महाराज जी! अभी तो हम नहीं कर सकते, हमारी दो-दो लड़कियाँ हैं, हमें उनकी शादी करनी है।’ मैंने उसे समझाया- ‘चिन्ता मत करो, अपने भाग्य पर भरोसा करो।’ उसने कहा ‘नहीं महाराज, आप हमको कम से कम २ साल तो अभी मत बोलो।’ मैंने कहा ‘भाई समझाना मेरा काम है बाकी तुम जानो।’ बड़े भाई ने कहा कि ‘महाराज चने की फसल में कीटनाशक की आवश्यकता पड़ती है, मैंने तय कर लिया अब चना बोयेंगे ही नहीं।’ उसने गेहूं बोया और दूसरे ने, इस लालच में कि अच्छी फसल है, पूरे खेत में डेढ़ सौ एकड़ में चना और मसूर बोया। उस साल इल्लियों का प्रकोप जबरदस्त हुआ, कीटनाशक का अन्धाधुंध प्रयोग करने के बाद भी पूरी फसल चौपट हो गई क्योंकि कीटों का रेजीस्टेंस दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है। इस व्यक्ति ने चना की जगह गेहूं का फसल बोया। आपको सुनकर आश्चर्य होगा, वह बोला ‘महाराज जी इस बार का ऐसा योग रहा, आपका आशीर्वाद फला, क्या कहें कि हमेशा हमारी कभी भी फसल १२ से १४ गुने से ज़्यादा नहीं आई, इस बार २८ गुना फसल आई, रिकॉर्ड फसल है।’ एक ने नियम नहीं लिया उसकी फसल चौपट हो गई, जो आती थी वह भी नहीं आई और दूसरे ने नियम लिया उसकी फसल सुरक्षित हो गई। अपना-अपना पुण्य-पाप फलता है, बीज नहीं। 

मेरे सम्पर्क में विदिशा के विजयकरण जी पाटनी हैं, उनकी काफी लम्बी-चौड़ी खेती थी, अब तो वह नहीं रहे, उनके बेटे हैं। उनसे मैंने पूछा कि ‘आप खेती करते हो, तो कैसे करते हो?’ बोले महाराज ‘बोता हूँ और काटता हूँ, इसके अलावा कुछ नहीं करता और आप लोगों का आशीर्वाद है, पूरे इलाके में सबसे ज़्यादा रिकॉर्ड फसल हमारी आती है। महाराज! हमने आपसे एक ही बात सीखी है कि “बीज नहीं फलता, पुण्य फलता है।”

इसलिए पाप मत करो, पाप करके कदाचित अनाज की बोरी भरकर तुम घर लाओगे, उन्हें बेचकर, खाकर बर्बाद हो जाओगे लेकिन उसके साथ आने वाले पाप को भोगने के लिए कहाँ जाओगे? असंख्यात जीवों की हत्या का पाप तुम्हें लगेगा, ऐसा काम कभी मत करना।”

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