इच्छा पूर्वक त्याग और विवशता पूर्वक त्याग करने में क्या अंतर है?

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शंका

इच्छा पूर्वक त्याग और विवशता पूर्वक त्याग करने में क्या अंतर है?

समाधान

एक व्यक्ति ने बाल ब्रह्मचर्य व्रत लिया हो और एक जिसने पत्नी खोने के बाद ब्रह्मचर्य  व्रत लिया हो, दोनों में क्या अंतर है? एक में स्वीकृति है और एक मजबूरी है | जो  अंतर-मन से स्वीकार किया जाता है वह हमारे जीवन के आनंद का आधार बनता है और जो मजबूरी में लिया जाता है आनंद दे यह कोई जरूरी नहीं | 

शास्त्रों में दो प्रकार की निर्जरा का वर्णन रहता है- सकाम निर्जरा  और अकाम निर्जरा | हम अपने आत्मा की कल्याण की भावना से, इच्छा पूर्वक तपस्या करके, जो कर्मों की निर्जरा करते हैं वो सकाम निर्जरा की श्रेणी में आती है और कई बार परिस्थिति निर्मित होने के बाद मजबूरी में समता धरते हैं, उससे जो निर्जरा होती है उसका नाम अकाम निर्जरा है | यह निर्जरा भी तब होगी जब आप समता से सहोगे, व्याकुल होकर के नहीं | मैं कहता हूं कि कोई भी नियम अगर आप अंतर-मन से स्वीकार करो तो आपके लिए सोने में सुगंध की बात है, वह आपके जीवन के लिए कल्याणकारी है | दूसरी बात नियम तो आपको निष्ठा-पूर्वक ही लेना चाहिए | नियम हम दूसरों के लिए नहीं लेते हैं, खुद के लिए लेते हैं, अपने कल्याण के लिए लेते हैं |जो नियम मैंने स्वीकार किए हैं, उसे मैं अपने जीवन के कल्याण का आधार मानकर स्वीकार करूँ| निष्ठा पूर्वक नियम का पालन करो तो उस नियम में आनंद होगा | आचार्य समन्तभद्र महाराज ने लिखा है  

अभि संधि कृता विर्तिर विषयात योग्यात व व्रतं भवति।

 अभिप्राय पूर्वक ,जब आप किसी चीज का त्याग करते है, तब वह सच्चा व्रत है। पर्वत की वंदना के लिए गए; यह तय किया कि नीचे आकर अन्न पानी लेंगे, मन में है कि नीचे आकर के लेंगे;  उपवास लिया नहीं- ‘नीचे आ कर लेंगे’,आते आते रात हो गई, रात्रि भोजन का त्याग है, आप नहीं ले पाए। उपवास तो हुआ आपका। इसकी निर्जरा, दिन होता तो आप भोजन कर लेते, है ना! “महाराज! हम लोग तो यह भी कह देते हैं अभी तो रेखा दिख रही है।” ले लेते हैं, ADJUST करते हैं; कहते हैं कि चलता है। लेकिन एक व्यक्ति ने उपवास किया यह सोच कर कि-“हम पर्वत पर चले हैं तो आज निर्जल उपवास से पर्वत की वंदना करेंगे, भले ही किसी भी टाइम वापस आए, कोई दिक्कत नहीं” उसने त्याग कर दिया तो उसकी जो निर्जरा होगी वह बड़ी उत्कृष्ट होगी और उसके मन में कोई विकल्प भी नहीं होगा, निश्चिंत!  यदि यह सोचकर आए- “अरे ! नीचे पहुंच गए तो भोजन करेंगे”, आ रहे हैं यही सोच कर कि-“जल्दी पहुंच जाए, जल्दी पहुंच जाए, देर ना हो जाए, दिन छुप न जाये, दिन छुप न जाये।” जो रोटी एक बार खाना है, किंतु पूरे रास्ते रोटी खाओगे। हालांकि उपवास तो किया आपने, निर्जरा तो हुई, लेकिन वह निर्जरा उतनी बलवान नहीं हो पाई। तो क्या करूँ? कोई भी नियम लो तो मन से स्वीकार करो! यदि कोई नियम बिना लिए निभाना पड़ रहा है तो भी मन को तैयार करो।

एक व्यक्ति ब्रह्मचर्य व्रत का पालन कर रहा संकल्प-पूर्वक और एक की पत्नी मायके चली गई है तो ब्रह्मचर्य  व्रत ले लो। पत्नी अब है नहीं तुमने पहले से व्रत ले लिया कि “मेरा ब्रह्मचर्य व्रत है”तो तुम्हारा अभिप्राय पूर्वक ब्रह्मचर्य व्रत पल गया। और पत्नी 15 दिन को मायके चली गई, तुम्हारा व्रत पलना है क्योंकि स्वदार संतोष व्रत तुमने पहले से ले रखा है, लेकिन पत्नी के जाने के बाद तुमने 15 दिन का ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया कि -“पत्नी आज गई, 15 दिन बाद आएगी, हमने 15 दिन का व्रत ले लिया”, तो तुम्हें ब्रह्मचर्य व्रत का आनंद आएगा,  उसका लाभ मिलेगा, तत्संबंधी पाप से बचोगे। इस बीच  कहीं पत्नी का कार्यक्रम संशोधित हो जाए, जल्दी भी आ जाए, तो भी तुम्हारा ब्रह्मचर्य व्रत पल जाएगा। यह प्रतिज्ञा का फल, अभिप्राय पूर्वक त्याग का फल! अब वह चली गई किंतु तुम्हारा मन तो उसके पीछे है, तो कैसे होगा? पल रहा है लेकिन चल रहा है, पले, चले नहीं! जो आप पाल रहे हैं उसे पालें और खुद को उसके अनुरूप ढालें!  तब जीवन का आनंद है।

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