प्रतिष्ठाचार्य एवं विधानाचार्य में अंतर! मुनिराज के आभाव में भगवान की मूर्ति को सूर्यमंत्र कौन दे सकता है?

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शंका

प्रतिष्ठाचार्य एवं विधानाचार्य में अंतर! मुनिराज के आभाव में भगवान की मूर्ति को सूर्यमंत्र कौन दे सकता है?

समाधान

प्रतिष्ठाचार्य बहुत बड़ा दायित्व है, हर कोई प्रतिष्ठा के योग्य नहीं होता। शास्त्रों में प्रतिष्ठाचार्य के कुछ लक्षण बतायें हैं- जो दृढ़ श्रद्धालु हो, शास्त्रों का ज्ञाता हो, क्रियानिष्ठ हो; जाति, क्रिया और मन्त्र तीनों से शुद्ध हो-मंत्रों का भी ज्ञाता हो, क्रियाओं का भी ज्ञाता हो, जाति से भी शुद्ध हो। जिसे अनेक प्रतिष्ठाओं का अनुभव हो, निस्पृही हो, प्रतिष्ठा में लोभ न रखता हो, वो प्रतिष्ठाचार्य होने के योग्य होता है। जिसे सारे ग्रंथों का ज्ञान, श्रद्धान, चारों अनुयोगों का ज्ञान और जाति-मंत्र-क्रिया, तीनों में जो विशुद्ध हो। 

विधानाचार्य कोई भी हो सकता है जो विधि-विधान करा दे, थोड़ा आगम का ज्ञान हो, जैन धर्म के मूलभूत स्वरूप को उसे भी जानना चाहिए। केवल विधि-विधान कराने वाले विधानाचार्य और जो विधि पूर्वक प्रतिष्ठा कराते हो वो प्रतिष्ठाचार्य। 

दरअसल हमारे यहाँ प्रतिष्ठाचार्य का जो रूप है, वह पुराने समय में गृहस्थ आचार्य होता था। गृह्स्थाचार्य यानि गृहस्थों का मुखिया और उसके संपूर्ण जीवन का निर्वाह समाज कराती थी। वह गृहस्थों के एक गुरु की तरह रहता था, यदि किसी भी गृहस्थ के द्वारा छुट-पुट दोष आदि लग जाए तो वह उसका प्रायश्चित देने का भी अधिकारी होता था। अब समय बदल गया, गृह्स्थाचार्य की मान्यता तो खत्म सी हो गई। अब प्रतिष्ठाचार्यों ने स्थान ले लिया, उसमें भी अनेक रूप आ गए। मैंने जिन बातों को कहा, इन गुणों से समन्वित व्यक्ति को ही प्रतिष्ठाचार्य के रूप में अपना काम करना चाहिए और ऐसे प्रतिष्ठाचार्य से कराई गई प्रतिष्ठा ही वास्तव में फलवान होती है। जाति, मन्त्र और क्रिया से हीन व्यक्ति अगर कोई प्रतिष्ठा करता है, तो उसका उस पर भी असर पड़ता है, समाज पर भी असर पड़ता है। 

आपने पूछा है कि यदि गुरुओं का सानिध्य नहीं हो तो क्या प्रतिष्ठाचार्य प्रतिमा में सूर्य मन्त्र दे सकता है? शास्त्रों में अपवादिक स्थिति में ही प्रतिष्ठाचार्य के द्वारा सूर्य मन्त्र देने का विधान किया। अपवादिक स्थिति कौन सी? जब योजनों तक कोई मुनि महाराज न मिले तब। मुनि महाराज के होते हुए प्रतिष्ठाचार्य सूर्य मन्त्र नहीं दे सकता और फिर दे भी तो अपने कपड़े उतार कर दे। एक बड़े मज़े की बात है, प्रतिष्ठा पाठों में यह तो लिखा है कि प्रतिष्ठाचार्य अपने कपड़े उतारे, पर कहीं नहीं लिखा कि पहन ले, बाद में पहनने का विधान नहीं है। 

ये स्थितियाँ हैं और यही प्रतिष्ठा हमारे आगम के अनुकूल हैं। गृह्स्थाचार्य विवाहित भी होते हैं। पर एक व्रती और एक अव्रती की प्रतिष्ठा में बहुत अन्तर होता है। उसमें भी अगर कोई बाल ब्रह्मचारी है और विधि-विधान में निष्णांत है, तो उसका प्रभाव अलग होता है। प्रतिष्ठाचार्य जितना साधक होगा और जितना निस्पृही होगा, प्रतिष्ठा में उतना ही प्रभाव पड़ता है।

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